मंगलवार, 11 जनवरी 2022

पोंगल



 पोंगल


जिस प्रकार ओणम् केरलवासियों का महत्त्वपूर्ण त्योहार है । उसी प्रकार पोंगल तमिलनाडु के लोगों का महत्त्वपूर्ण पर्व है । उत्तरभारत में जिन दिनों मकर सक्रान्ति का पर्व मनाया जाता है, उन्हीं दिनों दक्षिण भारत में पोंगल का त्यौहार मनाया जाता है।


पोंगल पर्व का संबंध  कृषि से है. इस पर्व को दक्षिण भारत में धूमधाम से मनाया जाता है. ये पर्व मकर संक्रांति के दिन यानि 14 जनवरी को मनाया जाता है. इस समय तक गन्ना और धान की फसल पक कर तैयार हो जाती है. पोंगल चार दिन तक चलने वाला तमिलनाडु का प्रमुख हिन्दू त्योहार है. पोंगल के इस त्योहार पर 4 दिनों तक उत्सव का माहौल  रहता है. यहां के लोग इस पर्व को नए साल के रूप में मनाते हैं. यह त्योहार तमिल महीने ‘तइ’ की पहली तारीख से शुरू होता है. इस त्योहार में इंद्र देव और सूर्य की उपासना की जाती है. पोंगल का त्योहार संपन्नता को समर्पित है. पोंगल में समृद्धि के लिए वर्षा, धूप और कृषि से संबंधित चीजों की पूजा अर्चना की जाती है. आइए जानते हैं इस पर्व का महत्व और शुभ मुहूर्त.


पोंगल शुभ मुहूर्त


चार दिन तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत 14 जनवरी से हो रही है. ज्योतिषाचार्य के अनुसार पोंगल पर पूजा के लिए इस दिन दोपहर 2 बजकर 12 मिनट का शुभ मुहूर्त है.


ध्यान रखें कि ये नई दिल्ली, भारत के लिए समय हैं,


कैसे मनाया जाता है पोंगल? 


पोंगल के त्योहार पर मुख्य तौर पर सूर्य की पूजा की जाती है. सूर्य को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है, उसे पगल कहते हैं. पोंगल के पहले दिन लोग सुबह उठकर स्नान करके नए कपड़े पहनते हैं और नए बर्तन में दूध, चावल, काजू, गुड़ आदि चीजों की मदद से पोंगल नाम का भोजन बनाया जाता है. इस दिन गायों और बैलों की भी पूजा की जाती है. किसान इस दिन अपनी बैलों को स्नान कराकर उन्हें सजाते हैं. इस दिन घर में मौजूद खराब वस्तुओं और चीजों को भी जलाया जाता है और नई वस्तुओं को घर लाया जाता है. कई लोग पोंगल के पर्व से पहले अपने घरों को खासतौर पर सजाते हैं.


पोंगल का त्योहार तमिलनाडु में पूरे उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है. 4 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के पहले दिन को ‘भोगी पोंगल’ कहते हैं, दूसरे दिन को ‘सूर्य पोंगल’, तीसरे दिन को ‘मट्टू पोंगल’ और चौथे दिन को ‘कन्नम पोंगल’ कहते हैं. पोंगल के हर दिन अलग-अलग परंपराओं और रीति रिवाजों का पालन किया जाता है.


भारत एक कृषि प्रधान देश है । यहाँ की अधिकांश जनता कृषि के द्वारा आजीविका अर्जित करती है । आजकल तो उद्योगिकरण के साथ-साथ कृषि कार्य भी मशीनों से किया जाने लगा है । परन्तु पहले कृषि मुख्यत: बैलों पर आधारित थी । बैल और गाय इसी कारण हमारी संस्कृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।


भगवान शिव का वाहन यदि बैल है तो भगवान श्रीकृष्ण गोपालक के नाम से जाने जाते हैं । गायों की हमारे देश में माता के समान पूज्य मानकर सेवा की जाती रही है । गाय केवल दूध ही नहीं देती बल्कि वो हमें बछड़े प्रदान करती है जो खेती करने के काम आते हैं । तमिलनाडुवासी तो पोंगल के अवसर पर विशेष रूप से गाय, बैलों की पूजा करते हैं ।


महिलाएं भगवान से अच्छी फसल होने की प्रार्थना करती है । इन्हीं दिनों घरों की लिपाई-पुताई प्रारम्भ हो जाती है । अमावस्या के दिन सब लोग एक स्थान पर एकत्र होते हैं । इस अवसर पर लोग अपनी समस्याओं का समाधान खोजते हैं । अपनी रीति-नीतियों पर विचार करते हैं और जो अनुपयोगी रीति-नीतियाँ हैं उनका परित्याग करने की प्रतिज्ञा की जाती है ।


जिस प्रकार 31 दिसम्बर की रात को गत वर्ष को संघर्ष और बुराइयों का साल मानकर विदा किया जाता है, उसी प्रकार पोंगल को भी प्रतिपदा के दिन तमिलनाडुवासी बुरी रीतियों को छोड़ने की प्रतिज्ञा करते हैं ।


यह कार्य ‘पोही’ कहलाता है । जिसका अर्थ है- ‘जाने वाली’ । इसके द्वारा वे लोग बुरी चीजों का त्याग करते हैं और अच्छी चीजों को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करते हैं।


पोही के अगले दिन अर्थात् प्रतिपदा को पोंगल की धूम मच जाती है । इस अवसर पर सभी छोटे-बड़े लोग काम में आने वाली नई चीजे खरीदते हैं और पुरानी चीजों को बदल डालते हैं । नए वस्त्र और नए बर्तन खरीदे जाते हैं।


नए बर्तनों में दूध उबाला जाता है । खीर बनाई जाती है। लोग पकवानों को लेकर इकट्‌ठे होते हैं, और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं। मकर सक्रान्ति से सूर्य उत्तरायण में चला जाता है दिन बड़े होने लगते हैं । सूर्य भगवान की कृपा होने पर ही फसलें पकती हैं । किसानों को उनकी वर्ष भर की मेहनत फल मिलता है ।


ये त्योहार तामिलनाडु का त्योहार अवश्य है पर इसके पीछे जो आध्यात्मिक संदेश छिपा है वह सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए पवित्रता और नवोत्साह का संदेश देता है । इस त्योहार पर गाय के दूध के उफान को बहुत महत्व दिया जाता है ।


उनका विचार है कि जिस प्रकार दूध का उफान शुद्ध और शुभ है उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी का मन भी शुद्ध संस्कारों से उज्ज्वल होना चाहिए । इसलिए वे अन्त:करण की शुद्धता के लिए सूर्यदेव से प्रार्थना करते हैं.

इस त्यौहार का नाम पोंगल इसलिए पड़ा, क्योंकि इस दिन सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है वह पगल कहलाता है. तमिल भाषा में पोंगल का एक अन्य अर्थ निकलता है अच्छी तरह उबालना’. दोनों ही रूप में देखा जाए तो बात निकल कर यह आती है कि अच्छी तरह उबाल कर सूर्य देवता को प्रसाद भोग लगाना. पोंगल का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह तमिल महीने की पहली तारीख को आरम्भ होता है.


पोंगल पर्व से ही तमिलनाडु में नव वर्ष का शुभारंभ होता है. पोंगल की तुलना नवान्न से की जा सकती है जो फसल की कटाई का उत्सव होता है. पोंगल का तमिल में अर्थ उफान या विप्लव होता है. यह त्‍योहार पारंपरिक रूप से संपन्‍नता को समर्पित है, जिसमें समृद्धि लाने के लिए वर्षा, धूप और खेतिहर मवेशियों की आराधना की जाती है. 


इस त्‍योहार का इतिहास एक हजार साल पुराना है और इसे तमिळनाडु सहित देश के अन्य भागों के अलावा श्रीलंका, मलेशिया, मॉरिशस, अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर और अन्य कई स्थानों पर रहने वाले तमिलों द्वारा उत्साह से मनाया जाता है. तमिलनाडु के प्रायः सभी सरकारी संस्थानों में इस दिन अवकाश रहता है. 


15/14 जनवरी का दिन उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है जिसका महत्व सूर्य के मकर रेखा की तरफ़ प्रस्थान करने को लेकर है.


इसे गुजरात और महाराष्ट्र में उत्तरायन कहते हैं, 


जबकि यही दिन आन्ध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक (ये तीनों राज्य तमिलनाडु से जुड़े हैं) में संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है. 


पंजाब में इसे लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है. 


दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में पोंगल का त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का स्वागत कुछ अलग ही अंदाज में किया जाता है. सूर्य को अन्न धन का दाता मानकर चार दिनों तक यह उत्सव मानाया जाता है.


चार दिनों तक चलता है पोंगल


पोंगल के महत्व का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह पर्व चार दिनों तक चलता है. हर दिन के पोंगल का अलग-अलग नाम होता है. यह जनवरी से शुरू होता है.


1. भोगी पोंगल


पहली पोंगल को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र का समर्पित हैं. इसे भोगी पोंगल इसलिए कहते हैं क्योंकि देवराज इन्द्र भोग विलास में मस्त रहनेवाले देवता माने जाते हैं. इस दिन संध्या समय में लोग अपने अपने घर से पुराने वस्त्र कूड़े आदि से लाकर एक जगह इकट्ठा करते हैं और उसे जलाते हैं. यह ईश्वर के प्रति सम्मान एवं बुराईयों के अंत की भावना को दर्शाता है. इस अग्नि के इर्द गिर्द युवा रात भर भोगी कोट्टम बजाते हैं जो भैस की सिंग काबना एक प्रकार का ढ़ोल होता है.


2. सूर्य पोंगल


दूसरी पोंगल को सूर्य पोंगल कहते हैं. यह भगवान सूर्य को निवेदित होता है. इसदिन पोंगल नामक एक विशेष प्रकार की खीर बनाई जाती है जो मिट्टी के बर्तन में नये धान से तैयार चावल मूंग दाल और गुड़ से बनती है. पोंगल तैयार होने के बाद सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है और उन्हें प्रसाद रूप में यह पोंगल व गन्ना अर्पण किया जाता है.


3. मट्टू पोंगल


तीसरे पोंगल को मट्टू पोंगल कहा जाता है. तमिल मान्यताओं के अनुसार मट्टू भगवान शंकर का बैल है जिसे एक भूल के कारण भगवान शंकर ने पृथ्वी पर रहकर मानव के लिए अन्न पैदा करने के लिए कहा और तब से पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में मानव की सहायता कर रहा है. इस दिन किसान अपने बैलों को स्नान कराते हैं. उनके सिंगों में तेल लगाते हैं एवं अन्य प्रकार से बैलों को सजाते है. बालों को सजाने के बाद उनकी पूजा की जाती है. बैल के साथ ही इस दिन गाय और बछड़ों की भी पूजा की जाती है. 


कही-कहीं लोग इसे केनू पोंगल के नाम से भी जानते हैं, जिसमें बहनें अपने भाईयों की खुशहाली के लिए पूजा करती है और भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं.


4. कन्नम पोंगल /कन्या पोंगल


चार दिनों के इस त्यौहार के अंतिम दिन कन्या पोंगल मनाया जाता है, जिसे तिरूवल्लूर के नाम से भी लोग पुकारते हैं. इस दिन घर को सजाया जाता है. आम के पलल्व और नारियल के पत्ते से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है. महिलाएं इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं. इस दिन पोंगल बहुत ही धूमधाम के साथ मनाया जाता है. लोग नये वस्त्र पहनते है और दूसरे के यहां पोंगल और मिठाई वयना के तौर पर भेजते हैं. इस पोंगल के दिन ही बैलों की लड़ाई होती है जो काफी प्रसिद्ध है. रात्रि के समय लोग सामुदिक भोज का आयोजन करते हैं और एक दूसरे को मंगलमय वर्ष की शुभकामना देते हैं.


पोंगल पौराणिक कथाए

जिस प्रकार हर त्यौहार के पीछे कुछ पौराणिक कथाए जुडी है वैसे ही पोंगल के पीछे भी कुछ कथाए जुडी है |


एक कथा के अनुसार एक बार भगवान शंकर ने अपने बैल को ये आदेश दिया कि पृथ्वी लोक पर जाकर सभी प्राणी को ये सन्देश दो कि उसे हर दिन तेल में स्नान करना है और महीने में एक बार खाना खाना है |


लेकिन उस बैल ने पृथ्वी लोक पर जाकर सभी से उल्टा ही बोल दिया | उसने ये कहा कि आपको महीने में एक दिन तेल से स्नान करना है और हर रोज खाना खाना है| यह बात सुनकर भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए | और कहा आपने ये क्या किया | अगर वो हर दिन खाना खाएंगे तो उतना भोजन कहाँ से आएगा | अब अगर आपने गलती किया है तो आपको ही भुगतना पड़ेगा |


और भगवान शंकर ने उस बैल को कहाँ आप जाओ पृथ्वी लोक पर और मनुष्य जाती को अनाज उत्पादन में मदद करो | अब बैल से हल जोतकर किसान अपने फसल का उत्पादन करता है |


एक दूसरी कथा के अनुसार जब भगवान श्री कृष्णा बचपन में थे, तो उन्होंने इंद्र भगवान को सबक सिखाना चाहा | उन्होंने अपने गोकुल वासियो को भगवान इंद्र की पूजा करने से मना कर दिया | जिससे इंद्र भगवान बहुत नाराज हो गए और उन्होंने बहुत मूसलाधार बारिश करवा दी जिससे सारा गोकुल नगर डूब गया|


फिर भगवान कृष्णा ने गोवर्धन पर्वत को अपने अंगुली से उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की | और इंद्र के घमंड को चूर किया |


Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. लेखक इनकी पुष्टि नहीं करता है. इन पर अमल करने से पहले संबधित विशेषज्ञ से संपर्क करें.


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रविवार, 9 जनवरी 2022

मकर संक्रांति, खिचड़ी संक्रांति

 


मकर संक्रांति, 

मकर संक्रांति मुहूर्त 2022

14 जनवरी पुण्य काल मुहूर्त : 2 बजकर 12 मिनट से शाम 5 बजकर 45 मिनट तक

महापुण्य काल मुहूर्त : 2 बजकर 12 मिनट से 2 बजकर 36 मिनट तक  (अवधि कुल 24 मिनट)

ध्यान रखें कि ये नई दिल्ली, भारत के लिए समय हैं,


मकर संक्रांति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व माना जाता है. पौष मास में इस दिन सूर्य उत्तरायण होता है और मकर राशि में प्रवेश करता है. मकर संक्रांति से ही ऋतु परिवर्तन भी होने लगता है. इस दिन स्नान और दान-पुण्य जैसे कार्यों का विशेष महत्व माना गया है.

हिंदू धर्म में नवग्रहों को भी देव का दर्जा दिया गया है। जिनमें से सूर्य देव को सभी का राजा कहा जाता है। तो वहीं शास्त्रों में सूर्य भगवान को संपूर्ण जगत की आत्मा कहकर संबोधित किया जाता है। ऋग्वेद के देवताओं के सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अलावा भारतीय ज्योतिष में सूर्य ग्रह को आत्मा का कारक माना जाता है।  उत्तराषाढ़ा, उत्तराफ़ाल्गुनी तथा कृतिका सूर्य से संबंधित नक्षत्र माने जाते हैं। यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह के स्वामी हैं। अब इन सब बातों से आप जान चुके होंगे कि सूर्य देव हिंदू धर्म के कितने प्रमुख देवताओं में शामिल हैं, और इसमें इनका कितना महत्व है। 

मकर संक्रांति का महत्व

भारतीय संस्कृति में सूर्य का बड़ा महत्व है | सूर्य हमारे वैदिक देवता हैं | सूर्यदेव के बारे में वेद में कहा गया हे "सूर्य आत्मा जगत:" अर्थात सूर्य विश्व का आत्मा है | ज्योतिष शास्त्र में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है| मेष आदि १२ राशियाँ है | हर राशि में सूर्य एक माह तक रहते हैं | जब सभी १२ राशियों का परिभ्रमण समाप्त होता है तब एक संवत्सर यानी वर्ष समाप्त होता है| काल गणना का विस्तृत विज्ञानं हमारे भारतीय ग्रंथो में वर्णित है |जिसके अनुसार अहोरात्र का एक दिन, सात दिन का सप्ताह,दो सप्ताह का एक पक्ष, शुक्ल और कृष्ण इन दो पक्षों का एक मास, दो मास की एक ऋतु,तीन ऋतुओ का एक अयन और दो आयनो का एक वर्ष होता है | जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते हैं तब से ६ महीने उत्तरायण के महीने होते हैं | जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करते हैं तब से ६ महीने दक्षिणायन|

उत्तरायण का वैशिष्ट्य

उत्तरायण के समय में दिन बड़े, आकाश स्वच्छ और सूर्य की किरणे स्पष्ट,तीव्र एवं सीधी होती हैं | प्रकृति के विकास के लिए यह समय उत्कृष्ट समय माना गया है |मकर संक्रांति से सर्दी में कमी आने लगती है यानि शरद ऋतु के जाने का समय आरंभ हो जाता है और बसंत ऋतु का आगमन शुरू हो जाता है. मकर संक्रांति के बाद ही दिन लंबे रातें छोटी होने लगती हैं इसी समय में ऋतुओं के राजा वसंत का आगमन होता है | अतः उत्तरायण का काल शुभ माना जाता है|" उत्तरम् अयनम् अतीत्य व्यावृत्तः क्षेम सस्य वृद्धिकरः |" उत्तरायण का सूर्य क्षेम एवं धान्य वृद्धि करानेवाला होता है |

मकर संक्रांति को क्या करना चाहिए

 मकर संक्रांति के दिन वस्त्र,अन्न,बर्तन,तिल,घी,गुड,सुवर्ण,घोड़े,गाय या गौचारे का दान करनाचाहिए |हो सके अधिक  से अधिक समय जप अनुष्ठान करना चाहिए | यज्ञ करना अति श्रेष्ठ पर्याय है | अच्छे विचार करना और लोगो से अच्छा व्यव्हार करना तथा पुरे वर्ष के लिए किसी अच्छी प्रवृत्ति या नियम का संकल्प लेना | शास्त्र अभ्यास या गुरु से ज्ञान प्राप्त करने की शुरुआत करना |

मकर संक्रांति और महाभारत काल…

महाभारत युद्ध के महान योद्धा और कौरवों की सेना के सेनापति गंगापुत्र भीष्म पितामह को इच्छा मुत्यु का वरदान प्राप्त था। भीष्म जानते थे कि सूर्य दक्षिणायन होने पर व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त नहीं होता और उसे इस मृत्युलोक में पुनः जन्म लेना पड़ता है। अर्जुन के बाण लगाने के बाद उन्होंने इस दिन की महत्ता को जानते हुए अपनी मृत्यु के लिए इस दिन को निर्धारित किया था। महाभारत युद्ध के बाद जब सूर्य उत्तरायण हुआ तभी भीष्म पितामह ने प्राण त्याग दिए।

हर बारह साल में, हिंदू कुंभ मेले के साथ मकर संक्रांति मनाते हैं- दुनिया की सबसे बड़ी सामूहिक तीर्थयात्रा में से एक, इस आयोजन में अनुमानित 40 से 100 मिलियन लोग शामिल होते हैं। इस आयोजन में, वे सूर्य से प्रार्थना करते हैं और गंगा नदी और यमुना नदी के प्रयाग संगम पर स्नान करते हैं. यह परंपरा आदि शंकराचार्य ने प्रारंभ की थी। 

जुड़ी हुई हैं कई पौराणिक कथाएं

मकर संक्रांति के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं जिसमें से कुछ के अनुसार भगवान आशुतोष ने इस दिन भगवान विष्णु जी को आत्मज्ञान का दान दिया था।

ऐसी है मान्यता…

भगवान विष्णु की असुरों पर जीत

इस दिन लाखों श्रद्धालु गंगा और पावन नदियों में स्नान कर दान करते हैं. मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का वध कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर गाड़ दिया था. तभी से भगवान विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के रूप में मनाया जाता है

शनि से सूर्य के मिलन की कथा

देवी पुराण में बताया गया है कि सूर्य देव जब पहली बार अपने पुत्र शनि देव से मिलने गए थे, तक शनि देव ने उनको काला तिल भेंट किया था. उससे ही उनकी पूजा की थी. इससे सूर्य देव अत्यंत प्रसन्न हुए थे. फलस्वरूप शनि देव को आशीष दिया कि जब वे उनके घर मकर राशि में आएंगे, तो उनका घर धन-धान्य से भर जाएगा. मकर सं​क्रांति के अवसर पर जब सूर्य का शनि के घर में आगमन हुआ, तो उनका घर धन-धान्य से भर गया.

मकर संक्रांति और गंगा सागर

मान्यता है कि संक्रांति के दिन ही मां गंगा स्वर्ग से अवतरित होकर राजा भागीरथ के पीछे-पीछे कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई गंगासागर तक पहुँची थी। धरती पर अवतरित होने के बाद राजा भागीरथ ने गंगा के पावन जल से अपने पूर्वजों का तर्पण किया था। इस दिन पर गंगा सागर पर नदी के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता हैं।

श्रीकृष्ण का ये प्रसंग

माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने कहा था कि जो मनुष्य इस दिन अपने देह को त्याग देता है उसे मोक्ष की प्राप्ती होती है.

स्नान-दान का है पर्व

उत्तर प्रदेश में यह मुख्य रूप से ‘दान का पर्व’ माना जाता है। माघ मेले में स्नान के लिए ये सबसे शुभ दिन माना गया है। इस दिन गंगा स्नान करके तिल के मिष्ठान आदि को ब्राह्मणों में दान दिया जाता है।

इसलिए कहा जाता है देवायन

मकर संक्रांति के दिन देवलोक में भी दिन का आरंभ होता है। इसलिए इसे देवायन भी कहा जाता है।माना जाता है कि इस दिन देवलोक के दरवाजे खुल जाते हैं। हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस दिन से खरमास (पौष माह) के समाप्त होने के कारण रुके हुए शुभ कार्य जैसे कि विवाह, मुंडन, गृह निर्माण आदि मंगल कार्य पुन: शुरू हो जाते हैं।

शनि दोष से मुक्ति मिलती है 

 मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव का पुत्र शनि देव से मिलन होता है. धनु राशि से निकलकर सूर्य देव मकर राशि में प्रवेश करते हैं. मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मकर संक्रांति को सूर्य देव अपने पुत्र शनि देव से मिलने उनके घर जाते हैं. जो लोग मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव की आराधना करते हैं, उनको शनि दोष से मुक्ति मिलती है और उनका घर धन-धान्य से भर जाता है. ऐसी मान्यता है कि सूर्य की चमक के आगे शनि देव तेजहीन हो जाते हैं, इसलिए इस दिन शनि का प्रभाव कम हो जाता है. सूर्य देव के शनि देव से मिलने की कथा देवी पुराण में बताई गई है. आइए जानते हैं उस कथा के बारे में और उन उपायों के बारे में जिनसे आप धन-धान्य प्राप्त कर सकते हैं.

धन-धान्य के लिए मंकर संक्रांति पर उपाय

1. मकर संक्रांति के दिन यदि आप काले तिल से सूर्य देव और शनि देव की पूजा करें, तो आप पर दोनों की कृपा होगी. आप पर शनि दोष कम होगा या शनि के दुष्प्रभाव में कमी आएगी. सुख समृद्धि बढ़ेगी.

2. मकर संक्रांति के अवसर पर आप यदि काले तिल से सूर्य देव की पूजा करें, तो आपका भी घर धन-धान्य से भर जाएगा, जिस प्रकार से शनि देव का घर भर गया था. इस दिन आपको स्नान के बाद साफ कपड़ा पहनना चाहिए.

उसके बाद तांबे के लोटे में पानी भर लें, उसमें काला तिल, अक्षत्, फूल और लाल चंदन डाल दें. फिर सूर्य मंत्र का जाप करते हुए उस जल को सूर्य देव को अर्पित कर दें. ऐसा करने से सूर्य देव प्रसन्न होंगे और आपको सुख, सौभाग्य का आशीर्वाद मिलेगा.

क्यों उड़ाते हैं इस दिन पतंग

माना जाता है कि सूर्य के मकर राशि में जाते ही शुभ समय की शुरुआत हो जाती है। इसलिए लोग शुभता की शुरुआत का जश्न मनाने के लिए पतंग उड़ाते हैं। इस दिन आसमान में रंग बिरंगी पतंगे लहराती हुई नजर आती हैं। कई जगहों पर पतंग उड़ाने की प्रतियोगताएं भी आयोजित की जाती हैl 

विभिन्न राज्यों में मकर संक्रांति

मकर संक्रांति के विभिन्न नाम जिनसे इसे देश के विभिन्न भागों में जाना जाता है, इस प्रकार हैं। वैसे तो इस त्योहार को अलग-अलग नामों से मनाया जाता है, लेकिन इस दिन के उत्सव और उत्सव एक-दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं।

असम- माघ बिहु

पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश- माघी  

मध्य भारत- सुकराती

तमिलनाडु- थाई पोंगल

गुजरात, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश- उत्तरायण

उत्तराखंड- घुघुती

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना- संक्रांति

ओडिशा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, पश्चिम बंगाल- मकर संक्रांति

उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश- खिचड़ी संक्रांति

पश्चिम बंगाल- पौष संक्रांति

कश्मीर- शिशूर संक्रांति

त्रिपुरा- हंगराइ

इस दिन, तमिल किसान और तमिल लोग सूर्य देव सूर्य नारायणन का सम्मान करते हैं । ऐसा तब होता है जब सूर्य मकर राशि (मकर) में प्रवेश करता है । थाई पोंगल त्योहार जनवरी के मध्य, या में मनाया जाता है.थाई पोंगल त्योहार धान की फसल के कटाई के समय मनाया जाता है.

न केवल भारत, बल्कि यह दिन अन्य देशों के लोगों द्वारा भी मनाया जाता है। दक्षिण एशियाई देश जैसे नेपाल (माघी संक्रांति), पाकिस्तान (तिर्मूरी), सिंगापुर और मलेशिया (उझावर थिरुनल), सोंगक्रान (थाईलैंड), कंबोडिया (मोहन सोंगक्रान) आदि मकर संक्रांति पर्व भी मनाते हैं।

बांग्लादेश   

शकरेन बांग्लादेश में सर्दियों का एक वार्षिक उत्सव है , जिसे पतंग उड़ाने के साथ मनाया जाता है । 

नेपाल

माघे संक्रांति (नेपाली: माघे संक्रांति, मथिली: माघी, नेपाल भाषा: घ्यःचाकुल संक्रांति) एक नेपाली त्योहार है जो विक्रम संबत (बीएस) कैलेंडर (लगभग 14 जनवरी) में माघ के पहले दिन मनाया जाता है । थारू लोग इस खास दिन को नए साल के रूप में मनाते हैं। इसे मागर समुदाय का प्रमुख सरकार घोषित वार्षिक उत्सव भी माना जाता है । 

इस त्योहार के दौरान हिंदू स्नान करते हैं। इनमें पाटन के पास बागमती के पास शंखमूल; त्रिवेणी, पर गंडकी / नारायणी नदी बेसिन में देवघाट के पास चितवन घाटी और रिडी के पास कालीगंडकी पर; और  कोशी नदी बेसिन में दोलाल के सूर्य कोशी । 

लड्डू, घी और शकरकंद वितरित किए जाते हैं। हर घर की मां परिवार के सभी सदस्यों के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करती है। 

पाकिस्तान (सिंध)   

इस त्यौहार के दिन सिंधी माता-पिता अपनी विवाहित बेटियों को तिल के लड्डू और चिकी भेजते हैं। भारत में सिंधी समुदाय भी मकर संक्रांति को तिर्मूरी के रूप में मनाते हैं जिसमें माता-पिता अपनी बेटियों को मीठे व्यंजन भेजते हैं। 

खिचड़ी संक्रांति

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मकर संक्रांति के दिन चावल की खिचड़ी खाने की परम्परा है.

बाबा गोरखनाथ का दिया हुआ नाम है 'खिचड़ी'

ऐसी मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की प्रथा बाबा गोरखनाथ के समय से ही शुरू हो गई थी। देश में जब खिलजी ने आक्रमण किया तो नाथ योगियों को युद्ध के दौरान भोजन तैयार करने का समय नहीं मिलता था और वे भूखे-प्यासे युद्ध के लिए निकल जाते थे। उस समय बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जियां एक साथ पकाने की सलाह दी थी। यह खाना जल्दी तैयार हो जाता था और योगियों का पेट भी भर जाता था और साथ में काफी पौष्टिक भी होता था।

तत्काल तैयार किए जाने वाले इस व्यंजन का नाम खिचड़ी बाबा गोरखनाथ ने रखा था। खिलजी से मुक्त होने के बाद योगियों ने जब मकर संक्रांति पर्व मनाया था तो उस दिन सभी को खिचड़ी का ही वितरण किया गया था। तभी से मकर संक्रांति पर खिचड़ी बनाने की प्रथा शुरू हो गई। गोरखपुर में स्थित बाबा गोरखनाथ मंदिर में मकर संक्रांति के अवसर पर खिचड़ी मेले का आयोजन हर साल होता है और प्रसाद के रूप में खिचड़ी ही बांटी जाती है। श्रधालु मंदिर में चावल एवं उड़द की दाल दान देते हैं.

खिचड़ी का धार्मिक महत्व

मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव अपने पुत्र शनि के घर मिलने जाते हैं। ज्योतिष में उड़द की दाल को शनि से संबंधित माना गया है। ऐसे में उड़द की दाल की खिचड़ी खाने से शनि देव और सूर्यदेव दोनों प्रसन्न होते हैं। चावल को चंद्रमा, शुक्र को नमक, बृहस्पति को हल्दी, बुध को हरी सब्जी का कारक माना गया है। वहीं खिचड़ी की गर्मी से इसका संबंध मंगल से है। मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने से कुंडली में लगभग सभी ग्रहों की स्थिति में सुधार होता है।

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लोहड़ी

 लोहड़ी

नये साल की शुरुआत के साथ ही साल का पहला त्योहार लोहड़ी आने वाला है. मकर संक्रांति से एक दिन पहले ये पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. हर साल की तरह इस साल भी ये पर्व 13 जनवरी को मनाया जाएगा. इस दिन आग में तिल, गुड़, गजक, रेवड़ी और मूंगफली चढ़ाने का रिवाज होता हैहैं.


लोहड़ी 2022 तारीख, संक्रांति समय एवं योग

इस साल लोहड़ी का त्योहार 13 जनवरी दिन गुरुवार को है. इस दिन लोहड़ी संक्रांति का समय दोपहर 02 43 मिनट पर है. इस दिन शुभ योग दोपहर 12 बजकर 35 मिनट तक है, उसके बाद शुक्ल योग प्रारंभ हो जाएगा. ये दोनों ही योग शुभ कार्यों के लिए अच्छे होते हैं. लोहड़ी के दिन रवि योग प्रात: 07 बजकर 15 मिनट से शाम 05 बजकर 07 मिनट तक है. इस बार की लोहड़ी रवि योग में है.

अग्नि प्रज्जवलन का शुभ मुहूर्त

वीरवार की सायंकाल 5 बजे से रोहिणी नक्षत्र आरंभ हो जाएगा। 


लोहड़ी पर्व को हिन्दू कैलेंडर विक्रम संवत् एवं मकर संक्रांति से जोड़ा गया है। लोहड़ी को सर्दियों के जाने और बसंत के आने का संकेत भी माना जाता है. कई जगहों पर लोहड़ी को तिलोड़ी भी कहा जाता है. रात को आग का अलाव जलाया जाता है. इस अलाव में गेहूं की बालियों को अर्पित किया जाता है. इस अवसर पर पंजाबी समुदाय के लोग भांगड़ा और गिद्दा नृत्य कर उत्सव मनाते हैं.


लोहड़ी का महत्व

लोहड़ी का त्‍योहार सर्दियों के जाने और बसंत के आने के संकेत के तौर पर भी देखा जाता है।

पंजाबी संस्कृति के अनुसार इस महीने में फसल की कटाई शुरू होती है। लोहड़ी को उत्तर भारत का एक प्रमुख त्योहार माना जाता है, खासकर पंजाब और हरियाणा प्रांत में तो इस त्योहार की धूम रहती है। मकर संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी का त्योहार होता है जिसमें सूर्यास्त के बाद लोग अपने घरों के सामने लोहड़ी  जलाकर इसके इर्द-गिर्द नाचते-गाते और खुशियां मनाते हैं. 

माना जाता है कि अग्नि के चारों ओर घूमने से वैवाहिक जीवन मधुर व मजबूत होता है. इसलिए लोहड़ी के दिन नव दंपति पारंपरिक वस्त्र पहनकर लोहड़ी मनाते हैं। 

नवविवाहित महिलाएं या फिर मां बनीं महिलाएं अपनी पहली लोहड़ी का बेसब्री से इंतजार करती हैं।

इसके अलावा, ये त्योहार किसानों का नव वर्ष भी कहलाता है। इसी दिन ही घरों में नई फसल की पूजा की जाती है. आग में गुड़, तिल, रेवड़ी, गजक डालने और इसके बाद इसे एक-दूसरे में बांटने की परंपरा है. इस दिन पॉपकॉर्न और तिल के लड्डू भी बांटे जाते हैं. इस दिन रबी की फसल को आग में समर्पित कर सूर्य देव और अग्नि का आभार प्रकट किया जाता है. आज के दिन किसान फसल की उन्नति की कामना करते हैं.

साथ ही, घर के पुरुष भंगड़ा और महिलाएं गिद्दा करती हैं। 


पौष-माघ के महीने में कड़कती ठंड में जलता हुआ अलाव शुकून देने वाला होता है, इसी मौसम में किसानों को अपनी फसलों से थोड़े से फुर्सत के पल मिलते हैं, गेंहूं, सरसों, चने आदि की फसलें लहलहाने लगती हैं, किसानों के सपने सजने लगते हैं, उम्मीदें पलने लगती हैं। किसानों के इस उल्लास को लोहड़ी के दिन देखा जा सकता है। हर्षोल्लास से भरा, जीवन में नई स्फूर्ति, एक नई उर्जा, आपसी भाईचारे को बढ़ाने व अत्याचारी, दुराचारियों की पराजय एवं दीन-दुखियों के नायक, सहायक की विजय का प्रतीक है लोहड़ी का त्यौहार। लोहड़ी का यह त्यौहार पंजाब के साथ-साथ हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर में भी पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। वर्तमान में देश के अन्य हिस्सों में भी लोहड़ी पर्व लोकप्रिय होने लगा है।


लोहड़ी गीत का महत्व 

लोहड़ी में गीतों का बड़ा महत्व माना जाता है. इन गीतों से लोगों के ज़ेहन में एक नई ऊर्जा एवं ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है. गीत के साथ नृत्य करके इस पर्व को मनाया जाता है.  इन सांस्कृतिक लोक गीतों में ख़ुशहाल फसलों आदि के बारे में वर्णन होता है. गीत के द्वारा पंजाबी योद्धा दुल्ला भाटी को भी याद किया जाता है. 


सुंदर मुंदरिये हो…

सुंदर मुंदरिये.............हो

तेरा कौन बेचारा, .............हो

दुल्ला भट्टी वाला, .............हो

दुल्ले घी व्याही,.............हो

सेर शक्कर आई, .............हो

कुड़ी दे बाझे पाई, .............हो

कुड़ी दा लाल पटारा, .............हो

कुड़ी दा सालू पाटा .............हो

सालू कौन समेटे .............हो

चाचा चुर्री कुट्टी .............हो

जमींदारा लुट्टी .............हो

ज़मींदार सुधाये .............हो

गिण गिण पौले लाऊ.............हो

इक पौला घट गया.............हो

जिमेंदार नट्ठ गया.............हो


अंबियां पे अंबिया (हिमाचल की मशहूर लोहड़ी)

अंबियां पे अंबिया… अंबियां

लाल कणकां जमियां…. अंबियां

कणकां बिच्च मुटेरे…… अंबियां

दो साधू केरे…………...अंबियां

साधू गे कायो…………...अंबियां

का औया थोड़ा………….अंबियां

अग्गैं मिल्ला घोड़ा………..अंबियां

घोड़े उप्पर काठी………….अंबियां

अग्गैं मिल्ला हाथी………...अंबियां

हाथियैं फिचके दांद

मेरा नाम गोपीचंद


लोहड़ी बधाई

दे माई लोहड़ी, तेरी जीवे जोड़ी , दे माई पाथी तेरा पुत्त चढ़ेगा हाथी

हुल्ले नी माइ हुल्ले

दो बेरी पत्ता झुल्ले

दो झुल्ल पयीं खजूर्राँ

खजूराँ सुट्ट्या मेवा

एस मुंडे कर मगेवा

मुंडे दी वोटी निक्कदी

ओ खान्दी चूरी कुटदी

कुट कुट भरया थाल

वोटी बावे ननदना नाल


शावा,,, शावा

असी गंगा चल्ले - शावा !

सस सौरा चल्ले - शावा !

जेठ जेठाणी चल्ले - शावा !

देयोर दराणी चल्ले - शावा !

पियारी शौक़ण चल्ली - शावा !

असी गंगा न्हाते - शावा !

सस सौरा न्हाते - शावा !

जेठ जठाणी न्हाते - शावा !

देयोर दराणी न्हाते - शावा !

पियारी शौक़ण न्हाती - शावा !

शौक़ण पैली पौड़ी - शावा !

शौक़ण दूजी पौड़ी - शावा !

शौक़ण तीजी पौड़ी - शावा !

मैं ते धिक्का दित्ता - शावा !

शौक़ण विच्चे रूड़ गई - शावा !

सस सौरा रोण - शावा !

जेठ जठाणी रोण - शावा !

देयोर दराणी रोण - शावा !

पियारा ओ वी रोवे - शावा


सुनी जाती है दुल्ला भट्टी की कहानी

इस दिन आग के पास घेरा बनाकर दुल्ला भट्टी की कहानी सुनी जाती है. लोहड़ी पर दुल्ला भट्टी की कहानी सुनने का खास महत्व होता है. 

मान्यता है कि मुगल काल में अकबर के समय में दुल्ला भट्टी नाम का एक शख्स पंजाब में रहता था. उस समय कुछ अमीर व्यापारी सामान की जगह शहर की लड़कियों को बेचा करते थे, तब दुल्ला भट्टी ने उन लड़कियों को बचाकर उनकी शादी करवाई थी. कहते हैं तभी से हर साल लोहड़ी के पर्व पर दुल्ला भट्टी की याद में उनकी कहानी सुनाने की पंरापरा चली आ रही है.


माना जाता है कि लोहड़ी की रात साल की आखिरी सबसे लंबी रात होती है। इसके बाद से दिन बड़े होने लगते हैं।


लोहड़ी का अर्थ


मकर संक्रांति से पहले वाली रात को सूर्यास्त के बाद मनाया जाने वाला पंजाब प्रांत का पर्व है लोहड़ी, जिसका का अर्थ है- ल (लकड़ी)+ ओह (गोहा यानी सूखे उपले)+ ड़ी (रेवड़ी)। तीनों अर्थों को मिला कर लोहड़ी बना है।


लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था. यह शब्द तिल और रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रूप में फेमस हो गया है. मकर संक्रांति के दिन भी तिल-गुड़ खाने और बांटने का महत्व है. पंजाब के कई इलाकों मे इसे लोही या लोई भी कहते हैं.


लोहड़ी को पहले कई स्‍थानों पर लोह कहकर भी बुलाया जाता था। लोह का अर्थ होता है लोहा। यहां लोहे को तवे से जोड़कर देखा जाता है। लोहड़ी के मौके पर पंजाब में नई फसल काटी जाती है। गेहूं के आटे से रोटियां बनाकर लोह यानी तवे पर सेंकी जाती हैं। इसलिए पहले इस त्योहार को लोह के नाम से भी जाना जाता था।


 इस पर्व के 20-25 दिन पहले ही बच्चे 'लोहड़ी' के लोकगीत गा-गाकर लकड़ी और उपले इकट्ठे करते हैं। फिर इकट्‍ठी की गई सामग्री को चौराहे/मुहल्ले के किसी खुले स्थान पर आग जलाते हैं। गोबर के उपलों की माला बनाकर मन्नत पूरी होने की खुशी में लोहड़ी के समय जलती हुई अग्नि में उन्हें भेंट किया जाता है। इसे चर्खा चढ़ाना भी कहा जाता हैं। 

 

समूह के साथ लोहड़ी पूजन करने के बाद उसमें तिल, गुड़, रेवड़ी एवं मूंगफली का भोग लगाया जाता है। इस अवसर पर ढोल की थाप के साथ गिद्दा और भांगड़ा नृत्य विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं। पंजाबी समुदाय में इस पर्व की तैयारी कई दिनों पहले ही शुरू हो जाती है। इसका संबंध मन्नत से जोड़ा गया है अर्थात जिस घर में नई बहू आई होती है या घर में संतान का जन्म हुआ होता है, तो उस परिवार की ओर से खुशी बांटते हुए लोहड़ी मनाई जाती है। सगे-संबंधी और रिश्तेदार उन्हें इस दिन विशेष सौगात के साथ बधाइयां भी देते हैं।


लोहड़ी और मकर संक्रांति एक-दूसरे से जुड़े रहने के कारण सांस्कृतिक उत्सव और धार्मिक पर्व का एक अद्भुत त्योहार है। लोहड़ी के दिन जहां शाम के वक्त लकड़ियों की ढेरी पर विशेष पूजा के साथ लोहड़ी जलाई जाती है, वहीं अगले दिन प्रात: मकर संक्रांति का स्नान करने के बाद उस आग से हाथ सेंकते हुए लोग अपने घरों को आएंगे। इस प्रकार लोहड़ी पर जलाई जाने वाली आग सूर्य के उत्तरायण होने के दिन का पहला विराट एवं सार्वजनिक यज्ञ कहलाता है।


लोहड़ी पर शाम को परिवार के लोगों के साथ अन्य रिश्तेदार भी इस उत्सव में शामिल होते हैं। इस पर्व पर अब बधाई के साथ तिल के लड्डू, मिठाई, ड्रायफूट्‍स आदि देने का रिवाज भी चल पड़ा है फिर भी रेवड़ी और मूंगफली का विशेष महत्व बना हुआ है। इसीलिए रेवड़ी और मूंगफली पहले से ही खरीदकर रख ली जाती है। बड़े-बुजुर्गों के चरण छूकर सभी लोग बधाई के गीत गाते हुए खुशी के इस जश्न में शामिल होते हैं। 

 

इस पर्व का एक यह भी महत्व है कि बड़े-बुजुर्गों के साथ उत्सव मनाते हुए नई पीढ़ी के बच्चे अपनी पुरानी मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ताकि भविष्य में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उत्सव चलता ही रहे। लोहड़ी का जश्न मनाते समय वहां सभी उपस्थित लोगों को यही चीजें प्रसाद के रूप में बांटी जाती हैं। इसके साथ ही पंजाबी समुदाय में घर लौटते समय 'लोहड़ी' में से 2-4 दहकते कोयले भी प्रसाद के रूप में घर लाने की प्रथा आज भी जारी है। ढोल की थाप के साथ गिद्दा नाच का यह उत्सव शाम होते ही शुरू हो जाता है और देर रात तक चलता ही रहता है। 

इस अवसर पर पंजाबी गाने की धूम 'ओए, होए, होए, बारह वर्षी खडन गया सी, खडके लेआंदा रेवड़ी...', इस प्रकार के पंजाबी गाने लोहड़ी की खुशी में खूब गाए जाएंगे और पर्व को चार चांद लगा देंगे।


लोहड़ी उत्सव का एक अनोखा ही नजारा होता है। लोगों ने अब समितियां बनाकर भी लोहड़ी मनाने का नया तरीका निकाल लिया है। ढोल-नगाड़ों वालों की पहले ही बुकिंग कर ली जाती है। सांस्कृतिक स्थलों में लोहडी त्यौहार की तैयारियां समय से कुछ दिन पूर्व ही आरम्भ हो जाती है. अनेक प्रकार के वाद्य यंत्रों के साथ जब लोहड़ी के गीत शुरू होते हैं तो स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे सभी स्वर में स्वर, ताल में ताल मिलाकर नाचने लगते हैं।


लोहड़ी का त्यौहार खुद में अनेक सौगातों को लिए होता है. फसल पकने पर किसान खुशी को जाहिर करता है जो  लोहड़ी पर्व, जोश व उल्लास को दर्शाते हुए सांस्कृत्तिक जुड़ाव को दर्शाता है , पंजाब और हरियाणा में विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है. लोहडी केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं है बल्कि संपूर्ण भारत में मनाया जाता है अलग-अलग नामों से फसल पकने की खुशी यहां पूरे जोश के साथ लोहड़ी के रुप में मनाई जाती है. लोहडी त्यौहार है, प्रकृति को धन्यवाद कहने का,यह मकर संक्रान्ति के आगमन की दस्तक भी कहा जाता है.


लोहड़ी से जुड़ी मान्यताएं |

लोहडी़ के पर्व के संदर्भ में अनेकों मान्यताएं हैं जैसे कि लोगों के घर जा कर लोहड़ी मांगी जाती हैं और दुल्ला भट्टी के गीत गाए जाते हैं, कहते हैं कि हिंदू लड़कियों को बेचे जाने का विरोधी था और उन्हें बचा कर वह उनकी हिंदू लड़कों से शादी करा देता था इस कारण लोग उसे पसंद करते थे और आज भी लोहड़ी गीतों में उसके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है. 

हिन्दु धर्म में यह मान्यता है कि आग में जो भी समर्पित किया जाता है वह सीधे हमारे देवों-पितरों को जाता है.इसलिए जब लोहड़ी जलाई जाती है तो उसकी पूजा गेहूं की नयी फसल की बालियों से की जाती है. लोहडी के दिन अग्नि को प्रजव्व्लित कर उसके चारों ओर नाच- गाकर शुक्रिया अदा किया जाता है. 

यूं तो लोहडी उतरी भारत में प्रत्येक वर्ग, हर आयु के जन के लिये खुशियां लेकर आती है. परन्तु नवविवाहित दम्पतियों और नवजात शिशुओं के लिये यह दिन विशेष होता है. युवक -युवतियां सज-धज, सुन्दर वस्त्रों में एक-दूसरे से गीत-संगीत की प्रतियोगिताएं रखते है. लोहडी की संध्यां में जलती लकडियों के सामने नवविवाहित जोडे अपनी वैवाहिक जीवन को सुखमय व शान्ति पूर्ण बनाये रखने की कामना करते है. नववधू, बहन, बेटी और बच्चों का उत्सव है.

पंजाबियों के लिए लोहड़ी उत्सव खास महत्व रखता है. जिस घर में नई शादी हुई हो या बच्चा हुआ हो उन्हें विशेष तौर पर बधाई दी जाती है. घर में नव वधू या बच्चे की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है. इस दिन बड़े प्रेम से बहन और बेटियों को घर बुलाया जाता है.


लोहड़ी पर भंगड़ा और गिद्दा की धूम |

लोहडी़ के पर्व पर लोकगीतों की धूम मची रहती है, चारों और ढोल की थाप पर भंगड़ा-गिद्दा करते हुए लोग आनंद से नाचते नज़र आते हैं. स्कूल व कालेजों में विशेष तौर पर इस दिन को मनाते हैं बच्चे नाच गा कर मजे करते नज़र आते हैं. मन को मोह लेने वाले गीतों कुछ इस प्रकार के होते है कि एक बार को जाता हुआ बैरागी भी अपनी राह भूल जाए. लोहडी के दिन में भंगडे की गूंज और शाम होते ही लकडियां की आग और आग में डाले जाने वाली चीजों की महक एक गांव को दूसरे गांव व एक घर को दूसरे घर से बांधे रखती है. यह सिलसिला देर रात तक यूं ही चलता रहता है. बडे-बडे ढोलों की थाप, जिसमें बजाने वाले थक जायें, पर पैरों की थिरकन में कमी न हों, रेवडी और मूंगफली का स्वाद सब एक साथ रात भर चलता रहता है.


माघ का आगमन | 

लोहडी पर्व क्योकि मकर-संक्रान्ति से ठीक पहले कि संध्या में मनाया जाता है तथा इस त्यौहार का सीधा संबन्ध सूर्य के मकर राशि में प्रवेश से होता है. लोहड़ी पौष की आख़िरी रात को मनायी जाती है जो माघ महीने के शुभारम्भ व उत्तरायण काल का शुभ समय के आगमन को दर्शाता है और साथ ही साथ ठंड को दूर करता हुआ मौसम में बदलाव का संकेत बनता है.


वैसे तो लोहड़ी का त्‍योहार हर साल मकर संक्रांति से एक दिन पहले यानी 13 जनवरी को मनाया जाता है। मगर कभी-कभी इसकी ग्रहों और नक्षत्रों की वजह से इसकी तिथि में फेरबदल हो जाता है। 

 

कैसे मनाते हैं लोहड़ी का त्यौहार

 

लोहड़ी के दिन लकड़ियों व उपलों का छोटा सा ढेर बनाकर जलाया जाता है जिसमें मूंगफली, रेवड़ी, भुने हुए मक्की के दानों को डाला जाता है। लोग अग्नि के चारों और गीत गाते, नाचते हुए खुशी मनाते हैं व भगवान से अच्छी पैदावार होने की कामना करते हैं। अविवाहित लड़कियां-लड़के टोलियां बनाकर गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोहड़ी मांगते हैं, जिसमें प्रत्येक घर से उन्हें मुंगफली रेवड़ी एवं पैसे दिए जाते हैं। जिस घर में बच्चा पैदा होता है उस घर से विशेष रुप से लोहड़ी मांगी जाती है।


दे माए लोहड़ी... जीवे तेरी जोड़ी


खोल माए कुंडा जीवे तेरा मुंडा


लोहड़ी पर्व का मुख्य उद्देश्य

पंजाब क्षेत्र में इस त्यौहार (माघी संग्रांद) को बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। विशेष रूप से शरद ऋतु के समापन पर इस त्यौहार को मनाने का प्रचलन है। साथ ही यह त्यौहार किसानों के लिए आर्थिक रूप से नूतन वर्ष माना जाता है।


उत्सव के दौरान बच्चे घर-घर जाकर लोक गीत गाते हैं और लोगों द्वारा उन्हें मिष्ठान और पैसे (कभी-कभार) भी दिए जाते हैं

●  ऐसा माना जाता है कि बच्चों को खाली हाथ लौटाना सही नहीं माना जाता है, इसलिए उन्हें इस दिन चीनी, गजक, गुड़, मूँगफली एवं मक्का आदि भी दिया जाता है जिसे लोहड़ी भी कहा जाता है।

●  फिर लोग आग जलाकर लोहड़ी को सभी में वितरित करते हैं और साथ में संगीत आदि के साथ त्यौहार का लुत्फ़ उठाते हैं।

●  रात में सरसों का साग और मक्के की रोटी के साथ खीर जैसे सांस्कृतिक भोजन को खाकर लोहड़ी की रात का आनंद लिया जाता है।

●  पंजाब के कुछ भाग में इस दिन पतंगें भी उड़ाने का प्रचलन है।


लोहड़ी पर इस विधि से करें पूजा

लोहड़ी पर भगवान श्रीकृष्ण, आदिशक्ति और अग्निदेव की आराधना की जाती है। इस दिन पश्चिम दिशा में आदिशक्ति की प्रतिमा स्थापित करें। इसके बाद उनके समक्ष सरसों के तेल का दीपक जलाएं। इसके बाद उन्हें सिंदूर और बेलपत्र अर्पित करें। भोग में प्रभु को तिल के लड्डू चढ़ाएं। इसके बाद सूखा नारियल लेकर उसमें कपूर डालें। अब अग्नि जलाकर उसमें तिल का लड्डू, मक्का और मूंगफली अर्पित करें। फिर अग्नि की 7 या 11 परिक्रमा करें।


लोहड़ी गीत एवं इसका महत्व

लोहड़ी में गीतों का बड़ा महत्व है। इससे लोगों के ज़ेहन में एक नई ऊर्जा एवं ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। इसके अलावा गीत के साथ नृत्य करके इस पर्व को मनाया जाता है। मूलरूप से इन सांस्कृतिक लोक गीतों में ख़ुशहाल फसलों आदि के बारे में वर्णन होता है। गीत के द्वारा पंजाबी योद्धा दुल्ला भाटी को भी याद किया जाता है। आग के आसपास लोग ढ़ोल की ताल पर गिद्दा एवं भांगड़ा करके इस त्यौहार का जश्न मनाते हैं।


विशेष पकवान

इस दिन नववधू किचन में पहली बार सबसे के लिए खाना बनाती है।

लोहड़ी के दिन विशेष पकवान बनते हैं जिसमें गज्जक, रेवड़ी, मुंगफली, तिल-गुड़ के लड्डू, मक्के की रोटी और सरसों का साग प्रमुख होते हैं. लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही छोटे बच्चे लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे, रेवडियां, मूंगफली इकट्ठा करने लग जाते हैं.


गांवों में आज भी लोहड़ी के समय सरसों का साग, मक्की की रोटी अतिथियों को परोस कर उनका स्वागत किया जाता है।


लोहड़ी की रात खीर बनाने की परंपरा है। इस खीर को अगले द‍िन माघ में खाया जाता है ज‍िससे जुड़ी एक कहावत है 'पोह रिद्धी माघ खाधी' ज‍िसका मतलब है पौष में बनाई खीर माघ में खाई गई। हर त्‍यौहार से जुड़ी कोई न कोई पारंपरिक रेस‍िपी घर-घर में जरूर बनाई जाती है। वैसे तो कई लोग लोहड़ी के द‍िन गन्‍ने के रस से बनी खीर खाते हैं पर उत्‍तर भारत में लोहड़ी के द‍िन च‍िरौंजी-मखाने की खीर भी बड़े चाव से खाई जाती है



लोहड़ी की कहानियां


दुल्ला भट्टी


लोहड़ी का त्यौहार मनाए जाने के पिछे वैसे तो कई मान्यताएं हैं, लेकिन सबसे प्रचलित मान्यता दुल्ला भट्टी की है।जिसे पंजाब के "रॉबिन हुड" के रूप में जाना जाता है।  लोहड़ी पर्व की एक ऐतिहासिक कथा भी है, जिसके अनुसार दुल्‍ला भट्टी नाम का सरदार जो अकबर के शासनकाल में पंजाब प्रांत का सरदार था। पंजाब प्रांत में संदलबार नामक एक जगह थी जो वर्तमान में पाकिस्‍तान का हिस्‍सा है। लोक कथा के अनुसार दुल्ला भट्टी मुगल शासकों के समय का एक बहादुर योद्धा था। एक गरीब ब्राह्मण की दो लड़कियों सुंदरी और मुंदरी के साथ स्थानीय मुगल शासक जबरदस्ती विवाह करना चाहता था, जबकि उनका विवाह पहले से कहीं और तय था। दुल्ला भट्टी ने लड़कियों को मुगल शासक के चंगुल से छुड़वाकर स्वयं उनका विवाह किया। उस समय उसके पास और कुछ नहीं था, इसलिए एक शेर शक्कर उनकी झोली में डाल कर उन्हें विदा किया। इसी कहानी को कई तरीके से पेश किया जाता है। किसी कहानी में दुल्ला भट्टी को अकबर के शासनकाल का योद्धा व पंजाब के नायक की उपाधि से सम्मानित बताया जाता है तो किसी कहानी में डाकू। लेकिन सभी कहानियों में समानता यही है कि दुल्ला भट्टी ने पीड़ित लड़कियों की सहायता कर एक पिता की तरह उनका विवाह किया। वह सामंती वर्ग से संबंधित थे लेकिन उन्होंने गरीबों के लिए मुगलों से विद्रोह किया था। 'दुल्ला भट्टी'को साल 1599 में मुगलों ने गिरफ्तार करके मार डाला था।दुल्ला भट्टी की कहानी को आज भी पंजाब के लोक-गीतों में सुना जा सकता है।लिहाज़ा आज के दौर में लोग उसे पंजाब का रॉबिन हुड कहते हैं।



लोकप्रिय लोहड़ी गीत

सुंदर मुंदरिए - हो

तेरा कौन विचारा-हो

दुल्ला भट्टी वाला-हो

दुल्ले ने धी ब्याही-हो

सेर शक्कर पाई-हो

कुडी दे बोझे पाई-हो

कुड़ी दा लाल पटाका-हो

कुड़ी दा शालू पाटा-हो

शालू कौन समेटे-हो

चाचा गाली देसे-हो

चाचे चूरी कुट्टी-हो

जिमींदारां लुट्टी-हो

जिमींदारा सदाए-हो

गिन-गिन पोले लाए-हो

इक पोला घिस गया जिमींदार वोट्टी लै के नस्स गया - हो!


लोकप्रिय लोहड़ी गीत पंजाबी में:

ਸੁਨਦਰ ਮੁਨਦਰੀਏ ...ਹੋ

ਤੇਰਾ ਕੋਨ ਵਿਚਾਰਾ ...ਹੋ

ਦੁਲਾ ਭਠੀ ਵਾਲਾ ... ਹੋ

ਦੁਲੇ ਨੇ ਧੀ ਵਿਹਾਇ ...ਹੌ

ਸੇਰ ਸ਼ਕਰ ਪਾਏ ...ਹੋ

ਕੁੜੀ ਦਾ ਲਾਲ ਪਟਾਖਾ ..ਹੋ

ਕੁੜੀ ਦਾ ਸਾਲੁ ਪਾਟਾ ...ਹੋ

ਸਾਲੂ ਕੋਨ ਸਮੇਟੇ !

ਚਾਚੇ ਚੂਰੀ ਕੁੱਟਿ!

ਜ਼ਮਿਦਾਰਾ ਲੁੱਟਿ

ਜ਼ਮੀਨਦਾਰ ਸੁਧਾਏ

ਬਮ ਥਮ ਭੌਲੇ ਘਾਏ

ਇਕ ਭੋੱਲਾ ਰਹਿ ਗਿਆ

ਸਿਪਾਹਿ ਫੱੜਕੇ ਲੈ ਗਿਆ

ਸਿਪਾਹਿ ਨੇ ਮਾਰੀ ਇੰਟ

ਸਾੱਨੁ ਦੇਦੇ ਲੋਹੜੀ , ਤੇ ਤੇਰੀ ਜੀਵੇ ਜੋੜੀ


इस प्रकार उन दोनों की शादी तो हो गई, लेकिन बाद में मुगल शासकों ने अब्दुल्ला भाटी पर हमला कर दिया और वह मारा गया। तब से अब्दुल्ला भाटी की याद में लोहड़ी का ये त्योहार मनाया जाता है और शाम के समय लकड़ी और उपले जलाकर उसकी परिक्रमा की जाती है। आज एक-दूसरे को मूंगफली, रेवड़ियां आदि बांटने और खाने का भी रिवाज़ है।


पौराणिक कथा


 देवी सती

हिंदु पौराणिक कथा के मुताबिक लोहड़ी का पर्व भगवान शिव और देवी सती के जीवन से जुड़ा है. कथा के अनुसार माता पार्वती के पिता प्रजापति दक्ष ने यज्ञ आयोजन किया और अपने दामाद भगवान शिव को इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया.  इससे नाराज होकर देवी सती अपने पिता के घर पहुंचीं और वहां पति भगवान शिव के बारे में कटु वचन और अपमान सुन वह यज्ञ कुंड में समा गईं. 

ऐसा माना जाता है  कि उनकी याद में ही लोहड़ी के दिन आग जलाया जाता है. 


भगवान् कृष्ण लोहिता वध

एक पौराणिक कथा के अनुसार कृष्ण के मामा कंस ने कृष्ण जी को मारने के लिए एक राक्षसी को भेजा था जिसका नाम लोहिता था। श्री कृष्ण जी ने उनको खेल खेल में ही मार दिया था। और इसकी ख़ुशी में में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है।


संत कबीर की पत्नी लोई

एक अन्य मान्यता के अनुसार, संत कबीर की पत्नी लोई से भी लोहड़ी को जोड़ा जाता है, जिस कारण पंजाब में कई स्थानों पर लोहड़ी को आज भी लोई कहा जाता है।



भारत के अन्य भाग में लोहड़ी

आंध्र प्रदेश में मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व भोगी मनाया जाता है। इस दिन लोग पुरानी चीज़ों को बदलते हैं। वहीं आग जलाने के लिए लकड़ी, पुराना फ़र्नीचर आदि का भी इस्तेमाल करते हैं। इसमें धातु की चीज़ों को दहन नहीं किया जाता है। रुद्र ज्ञान के अनुसार इस क्रिया के तहत लोग अपने सभी बुरे व्यसनों का त्याग करते हैं। इसे रुद्र गीता ज्ञान यज्ञ भी कहते हैं। यह आत्मा के बदलाव एवं उसके शुद्धिकरण का प्रतीक माना जाता है।


ईरान देश में लोहड़ी

ईरान का चहार-शंबे सूरी भी बिल्कुल लोहड़ी के पर्व की तरह ही नए साल का जश्न मनाया जाता है और सूखे मेवे अग्नि को अर्पित किये जाते है। इसे ईरानी पारसियों या प्राचीन ईरान का उत्सव मानते हैं।


आयुर्वेदिक दृष्टिकोण 

आयुर्वेद के दृष्टिकोण से जब तिल युक्त आग जलती है, वातावरण में बहुत सा संक्रमण समाप्त हो जाता है और परिक्रमा करने से शरीर में गति आती है । 



Disclaimer: यहां मुहैया सूचना सिर्फ मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. यहां यह बताना जरूरी है कि लेखक किसी भी तरह की मान्यता, जानकारी की पुष्टि नहीं करता है. किसी भी जानकारी या मान्यता को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह लें.


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