गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

करवा चौथ

 


 करवा चौथ


करवा चौथ या करक चर्तुदशी का त्योहार प्रमुख रूप से उत्तर भारत के कुछ हिस्सों, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी मनाया जाता है।  विवाहित महिलाएं अपने सबसे अच्छे परिधान पहनती हैं और अपने हाथों को सुंदर मेहंदी डिजाइनों से सजाती हैं। 


सुहाग की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए महिलाएं करवाचौथ का व्रत रखती है. सुहागिन महिलाओं के लिए ये व्रत बहुत ही खास होता है. इस व्रत का बहुत महत्व है. हिन्दू चन्द्र कलेण्डर के कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन करवाचौथ का व्रत रखा जाता है. इस दिन संकष्टी चतुर्थी का व्रत भी रखा जाता है. इस दिन महिलाएं 16 ऋंगार करती हैं और मां करवाचौथ का व्रत, पूजा और कथा आदि करती हैं. इस दिन निर्जला व्रत रखकर पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं. ये व्रत सूर्योदय से पहले शुरू होता है जिसे चांद निकलने तक रखा जाता है. इस व्रत में सास अपनी बहू को सरगी देती है. इस सरगी को लेकर बहु अपने व्रत की शुरुआत करती हैं. 

रात के समय चंद्रोदय के बाद ही चांद को अर्घ्य दिया जाता है और पति के हाथों से जल ग्रहण करके व्रत पारण किया जाता है.


संत गरीबदास जी कहते है:


कहे जो करवा चौथ कहानी, तास गदहरी निश्चय जानी, करे एकादशी संजम सोई, करवा चौथ गदहरी होई।।


अगर इस बार आप पहली बार करवाचौथ का व्रत रख रही हैं, तो व्रत के नियमों को अच्छे से जान लें. इस दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं। इस दिन क्या करना चाहिए और क्या नहीं. साथ ही, इस बात का भी ध्यान रखें कि इस दिन किस रंग के वस्त्र भूलकर भी न पहनें. अगर आप गलती से भी ऐसा करती हैं तो ये आपके लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है. आइए जानते हैं करवाचौथ के दिन किस तरह के रंग बिल्कुल न पहनें. 


काला


हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य के दौरान काला पहनने की मनाही होती है. ये रंग अशुभता का प्रतीक है. कहते हैं कि इस दिन मंगलसूत्र के काले दानों के अलावा किसी भी तरह से काले रंग का प्रयोग न करें. 


सफेद


मान्यता है कि कोई भी सुहागिन सफेद रंग न पहनें. वैसे तो इसे शांति और सौम्यता का प्रतीक है लेकिन सुहाग के लिए रखे जाने वाले इस व्रत में सफेद रंग पहनने की मनाही होती है. करवाचौथ के दिन महिलाओं को किसी अन्य व्यक्ति को शकर, दूध, दही, चावल और सफेद वस्त्र भी नहीं दान में देने चाहिए. 


भूरा


कहते हैं कि ये रंग राहु और केतु का प्रतिनिधित्व करता है. अतः इस दिन भूरे रंग से भी बचना चाहिए. 


राशि के अनुसार रंग चुनकर करें कपड़ों का चयन


1. अगर आपकी राशि मेष है तो आप करवाचौथ के दिन लाल और गोल्डन रंग की साड़ी, लहंगा या सूट पहनकर पूजा करें.


2. वहीं, वृष राशि वाली महिलाओं के लिए सिल्वर रंग की साड़ी या वस्त्र पहनना बेहतर होगा.


3. हरा रंग मिथुन राशि वाली महिलाओं को पहनने की सलाह दी जाती है. कहते हैं हरा रंग करवाचौथ के दिन पहनना शुभ होता है. 


4. कर्क राशि के लिए लाल रंग की साड़ी और रंग बिरंगी चूड़ियां पहनने की सलाह दी जाती है. इस दिन भगवान को सफेद बर्फी का भोग लगाना लाभकारी होगा. 


5. लाल, संतरी, गुलाबी या गोल्डन रंग के कपड़े सिंह राशि वालों के लिए शुभ माने जाते हैं. कहते हैं कि इससे आपके और आपके पति के बीच प्यार हमेशा बना रहेगा.


6. करवाचौथ के दिन कन्या राशि की महिलाएं लाल, हरी या गोल्डन साड़ी पहनें. इससे दांपत्य जीवन में मधुरता बनी रहेगी.


7. तुला राशि की महिलाओं को लाल, गोल्डन या सिल्वर रंग के कपड़े पहनें की सलाह दी जाती है.


8. वृश्चिक राशि वाली महिलाओं के लिए लाल रंग सबसे अच्छा है. करवाचौथ के दिन आप महरून या गोल्डन रंग का लहंगा, साड़ी या सूट पहनकर भी पूजा कर सकती हैं.


9. आसमानी या पीले रंग के कपड़े धनु राशि वाली महिलाओं को पहनने की सलाह दी जाती है. ज्योतिषियों का मानना है कि इस रंग के वस्त्र पहनने कर पूजा करने पर भगवान आपकी पूजा जरूर स्वीकार करेंगे.


10. मकर राशि वालों के लिए नीला रंग बहुत शुभ माना जाता है.


11. कुंभ राशि वाली महिलाएं भी नीले रंग के वस्त्र पहनें या सिल्वर रंग के कपड़े पहनें. करवाचौथ पर इस रंग को धारण करना शुभ माना जाता है. 


12. मीन राशि वाली महिलाएं पीले या गोल्डन या दोनों रंग का मिला-जुला कर वस्त्र धारण करें. इससे आपकी सभी मनोकामना पूरी होगी


सुहागिन महिलाओं के लिए करवाचौथ के दिन लाल, गुलाबी, पीला, हरा, मैरून, आदि रंगों का बहुत महत्व है, और अगर करवाचौथ व्रत की कि जाए तो महिलाओं को इस दिन लाल रंग के वस्त्र पहनने चाहिए. इतना ही नहीं, ये भी कहा जाता है कि पहली करवाचौथ पर अगर महिलाएं अपनी शादी का जोड़ा पहने तो और भी अच्छा होता है.


करवा चौथ से कुछ दिन पहले, विवाहित महिलाएं नए करवा (गोलाकार मिट्टी के बर्तन) - 7 "-9" व्यास और 2-3 लीटर क्षमता खरीदती है, उन्हें बाहर पेंट से सजाती है।  वे उस पर सुंदर डिजाइन बनाती है।  मिट्टी का करवा गणेशजी का प्रतीक माना गया है.


करवा चौथ की पूजन सामग्री:


करवा चौथ में महिलाओं को मिट्टी का टोंटीदार करवा व ढक्कन, पानी का लोटा, गंगाजल, दीपक, रूई, अगरबत्ती, चंदन, कुमकुम, रोली, अक्षत, फूल, कच्चा दूध, दही, देसी घी, शहद, चीनी, हल्दी, चावल, मिठाई, चीनी का बूरा, मेहंदी, महावर, सिंदूर, कंघा, बिंदी, चुनरी, चूड़ी, बिछुआ, गौरी बनाने के लिए पीली मिट्टी, लकड़ी का आसन, छलनी, आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और दक्षिणा के पैसे की आवश्यकता होती है.


करवा चौथ व्रत की पूजा विधि:


पूजा चांद निकलने के एक घंटे पहले शुरु कर देनी चाहिए. इस दिन महिलाएं एक साथ मिलकर पूजा करती हैं.


1. इस दिन सुबह- इस दिन सूर्य उदय होने से पहले ही स्नान कर लें। प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का निर्जला व्रत आरंभ करें- ‘मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।’आपको सरगी के रूप में जो भोजन मिला है उसे ग्रहण करें और पानी पीएं।



सरगी उसे कहा जाता है, जो करवा चौथ के मौके पर सास अपनी बहू को देती हैं। सरगी सुबह सूरज निकलने से पहले ही दी जाती है। सरगी की थाली में फल, कम कैलोरी वाली मिठाई,  ड्राई फूट्स के साथ  पानी और दूध शामिल किया जा सकता है। वैसे सरगी खाने के बहुत लाभ भी होते हैं, महिलाएं पूरे दिन एनर्जी से फुल रहती हैं। आपको बता दें कि अगर किसी की सास नहीं है तो घर की कोई बड़ी महिला सरगी बनाकर भेज सकती हैं।


पूरे दिन निर्जला रहें।


दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है।

आठ पूरियों की अठावरी बनाएं। हलुआ बनाएं। पक्के पकवान बनाएं।


2. शिव परिवार स्थापना एक चौकी पर करें। फिर गणेश जी का पूजन करें। इन्हें पीले फूलों की माला, लड्डू और केला अर्पित करें।


3. फिर शिवजी और माता पार्वती को बेलपत्र और श्रृंगार की वस्तुएं चढ़ाये। इसके बाद करवा माता का चित्र लगाएं।


4. अगरबत्ती और दीपक जलाएं। फिर मिट्टी का कर्वा लें और उस पर स्वास्तिक बनाएं।


5. करवा चौथ की पूजा के लिए शाम को मिट्टी की वेदी बनाएं और उसपर सभी देवताओं की स्थापना करें। इस पर करवा रखें।


6. फिर एक थाली लें और उसमें धूप, दीप, चंदन, रोली, सिन्दूर रखें और घी का दीपक लें। दीपक को जलाएं।


7. चांद निकलने से करीब एक घंटा पहले ही पूजा शुरू कर देनी चाहिए। मिट्टी का कर्वा लें और उसमें दूध, जल और गुलाब जल मिलाएं.


‘ॐ शिवायै नमः’ से पार्वती का, ‘ॐ नमः शिवाय’ से शिव का, ‘ॐ षण्मुखाय नमः’ से स्वामी कार्तिकेय का, ‘ॐ गणेशाय नमः’ से गणेश का तथा ‘ॐ सोमाय नमः’ से चंद्रमा का पूजन करें।

पति की दीर्घायु की कामना निम्न मंत्र पढ़ कर करें।


नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥


8. करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करें। करवा चौथ व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें। कथा सुनने के उपरांत सभी सात बार परस्पर थालियां फेरते हैं तथा थाली में वही सामान एवं पूजा सामग्री रखते हैं, जो बयाने में सास को दिया जाएगा। करवे और लोटे को भी सात बार फेरने का विधान है।

( कुछ स्थानों पर करवा पर 13 बिंदी रख कर और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहते या सुनते है।) 


9. फिर चांद निकलने के बाद छलनी के जरिए चांद को देखें। चंद्रमा की पूजा करने के बाद अर्घ्य दें। चंद्रमा को जल, दूध, सफेद चन्दन, सफेद फूल, इत्र एवं मिश्री डालकर शुद्ध पात्र से अर्घ्य दिया जाता है। करवा चौथ पर अर्घ्य हाथ में पान,खड़ी सुपारी तथा अपने केश का एक कोना पकड़ कर देना चाहिए। इसके बाद पति के हाथ से जल ग्रहण कर व्रत का पारण किया जाता है। चांद के दर्शन के बाद महिला को अपने पति के हाथ से जल पीकर व्रत खोलना चाहिए। 


चंद्रमा को अर्घ्य देने का मंत्र


एहि चन्द्र सहस्त्रांशो तेजोराशे जगत्पते ।


अनुकम्प्यम माम देव ग्रहाण अर्घ्यम सुधाकर:।।


सुधाकर नमस्तुभ्यम निशाकर नमोस्तुते।।


10.पति की माता (अर्थात अपनी सासूजी) को उपरोक्त रूप से अर्पित एक लोटा, वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि वे जीवित न हों तो उनके तुल्य किसी अन्य स्त्री को भेंट करें। इसके पश्चात स्वयं व परिवार के अन्य सदस्य भोजन करें।



11. व्रती महिला को काले और सफेद कपड़े नहीं पहनने चाहिए। इस दिन लाल और पीले कपड़े पहना शुभ होता है। 


क्यों मनाया जाता है करवाचौथ?, किस तरह शुरू हुई इस व्रत को करने की परंपरा?


यह पंरपरा आज की नही बल्कि सदियों से चलती आ रही है। कहा तो यह भी जाता है कि यह व्रत देवताओं के समय से ही शुरू हुआ था। तभी तो इसका वर्णन महाभारत काल में भी देखने को मिला है। यह बात हर कोई जानना चाहता है कि इस व्रत की शुरूआत कैसे और कब हुई? और सबसे पहले यह व्रत किसने रखा था?


देवी पार्वती ने की थी करवा चौथ की शुरुआत


पौराणिक कथाओँ के अनुसार कहा जाता है कि सबसे पहले इस व्रत को करने की शुरूआत देवी पार्वती ने भोलेनाथ के लिए की थी। इसी व्रत को करने से उन्‍हें अखंड सौभाग्‍य की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए सुहागिनें अपने पतियों की लंबी उम्र की कामना से यह व्रत करती हैं।


ब्रह्मदेव ने देवताओं की पत्नियों को करवा चौथ का व्रत रखने की सलाह दी थी.


पौराणिक कथा के अनुसार यह बात भी कही जाती है कि एक बार देवताओं और राक्षसों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ा था। जिसमें दानव देवताओं पर हावी हुए जा रहे थे। तभी ब्रह्मदेव ने आकर सभी देवियों को करवा चौथ का व्रत करने को कहा। इस व्रत को करने से दानवों की हार हुई । और इसके बाद से ही कार्तिक माह की चतुर्थी के दिन से करवा चौथ का व्रत रखने की परंपरा शुरू हुई।


दिनभर पूजा की तैयारियों के बाद शाम को घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं या पंडितजी सभी को ‘करवा चौथ’ की शुभ कहानी सुनाते हैं। सभी महिलाएं पूर्ण शृंगार करके गोल घेरा बनाकर बैठती हैं तथा बड़े मनोयोग तथा प्रेम से कथा सुनती हैं।


प्रथम कथा


बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है। सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।


वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है। उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है। सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से ‘यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो’ ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।


इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।


अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।


द्वितीय कथा


इस कथा का सार यह है कि शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।


परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो


तृतीय कथा


एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।


उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ।


यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।


चौथी कथा


एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था।


पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्‍य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।


तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।


एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।


भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।


भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला।


अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं।


भारत में करवा माता के मंदिर


भारत देश में वैसे तो चौथ माता जी के कई मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गाँव में स्थित है। चौथ माता के नाम पर इस गाँव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया।


देश का सबसे पुराना चौथ माता मंदिर चौथ माता लगभग 567 साल पुराना है। ये मंदिर राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा नाम के शहर में है। इस मंदिर की स्थापना 1451 में वहां के शासक भीम सिंह ने की थी। करवा चौथ का त्योहार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस व्रत में चौथ माता की पूजा जाती है और उनसे सुहागिन स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं। चाैथ माता गौरी देवी का ही एक रुप है। इनकी पूजा करने से अखंड सौभाग्य का वरदान तो मिलता ही है साथ ही दाम्पत्य जीवन में भी सुख बढ़ता है।करीब 1 हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर है ये मंदिर


चौथ माता सरोवर

मंदिर के सामने ही चौथ माता सरोवर है। जहां आने वाले माता के भक्त बड़ी आस्था और श्रद्धा के सात सरोवर में डुबकी लगाते है और अपनी धार्मिक यात्रा पूरी करते है। 1463 में इस मंदिर के रास्ते पर बिजल की छतरी और इस तालाब का निर्माण भी कराया गया था। इस मंदिर में दर्शन के लिए राजस्थान से ही नहीं अन्य राज्यों से भी लाखों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं।


नवरात्र के दौरान यहां होने वाले धार्मिक आयोजनों का विशेष महत्व है। करीब एक हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर विराजमान चौथ माता जन-जन की आस्था का केन्द्र है।


शहर से 35 किमी दूर अरावली की एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित यह मंदिर जयपुर शहर के आसपास का एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण है।


मंदिर सुंदर हरे वातावरण और घास के मैदान के बीच स्थित है। सफेद संगमरमर के पत्थरों से स्मारक की संरचना तैयार की गई है। दीवारों और छत पर शिलालेख के साथ यह वास्तुकला की परंपरागत राजपूताना शैली के लक्षणों को प्रकट करता है।


मंदिर तक पहुंचने के लिए 700 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। देवी की मूर्ति के अलावा, मंदिर परिसर में भगवान गणेश और भैरव की मूर्तियां भी दिखाई पड़ती हैं।


शुभ काम का पहला निमंत्रण माता को


हाड़ौती क्षेत्र के लोग हर शुभ कार्य से पहले चौथ माता को निमंत्रण देते हैं। प्रगाढ़ आस्था के कारण बूंदी राजघराने के समय से ही इसे कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। माता के नाम पर कोटा में चौथ माता बाजार भी है। कोई संतान प्राप्ति तो कोई सुख-समृद्धि की कामना लेकर चौथ माता के दर्शन को आता है। मान्यता है कि माता सभी की इच्छा पूरी करती हैं।  


भारत का दूसरा चौथ माता का मंदिर मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में एयरपोर्ट मार्ग स्थित अम्बिकपुरी कॉलोनी में है. जहाँ प्रत्येक महीने की चौथ पर हजारो श्रद्धालु दर्शन हेतु आते है.


करवा माता की आरती


ऊँ जय करवा मइया, माता जय करवा मइया ।


जो व्रत करे तुम्हारा, पार करो नइया ।। ऊँ जय करवा मइया।


सब जग की हो माता, तुम हो रुद्राणी।


यश तुम्हारा गावत, जग के सब प्राणी ।। ऊँ जय करवा मइया।


कार्तिक कृष्ण चतुर्थी, जो नारी व्रत करती।


दीर्घायु पति होवे , दुख सारे हरती ।। ऊँ जय करवा मइया।


होए सुहागिन नारी,  सुख सम्पत्ति पावे।


गणपति जी बड़े दयालु, विघ्न सभी नाशे।। ऊँ जय करवा मइया।


करवा मइया की आरती, व्रत कर जो गावे।


व्रत हो जाता पूरन, सब विधि सुख पावे।।  ऊँ जय करवा मइया।



करवा चौथ में सींक, करवा, छलनी, दीपक,जल और चंद्रमा के दर्शन करने का क्या महत्व.



करवा और करवा माता की फोटो का महत्व 

हिंदू पंचांग के अनुसार चतुर्थी तिथि भगवान गणेश को समर्पित होती है और इस तिथि पर विधि विधान के साथ भगवान गणेश की पूजा-आराधना की जाती है। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतु्र्थी तिथि पर भगवान गणेश के साथ करवा माता की पूजा होती है इसलिए इसे करवा चौथ कहा जाता है। करवा के बिना करवा चौथ की पूजा अधूरी माना जाती है। करवा का अर्थ है मिट्टी का वह बर्तन जिसे अग्रपूज्य गणेशजी का स्वरूप माना गया है। गणेशजी जल तत्व के कारक हैं और करवा में लगी हुई टूंटी गणेशजी की सूंड का प्रतीक मानी गई है। इस दिन मिट्टी के करवा में जल भरकर पूजा में रखना मंगलकारी माना गया है। एक और मान्यता के अनुसार करवा उस नदी का प्रतीक भी है,जिसमें मगरमच्छ ने मां करवा के पति को पकड़ लिया था। वहीं करवा माता की तस्वीर की पूजा की जाती है। तस्वीर में माता का चित्र बना होता है। 


दीपक और छलनी का महत्व

करवा चौथ की पूजा में दीपक और छलनी का विशेष महत्व है। शास्त्रों के अनुसार प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है और दीपक जलाने से नकारात्मकता दूर होती है एवं पूजा में ध्यान केंद्रित होता है जिससे एकाग्रता बढ़ती है। करवा चौथ पर महिलाएं छलनी में दीपक रखकर चांद को देखती हैं और फिर पति का चेहरा देखती हैं। इसकी वजह करवा चौथ में सुनाई जाने वाली वीरवती की कथा से जुड़ा हुआ है। बहन वीरवती को भूखा देख उसके भाइयों ने चांद निकलने से पहले एक पेड़ की आड़ में छलनी में दीप रखकर चांद बनाया और बहन का व्रत खुलवाया।


सींक शक्ति का प्रतीक

करवा चौथ व्रत की पूजा सींक मां करवा की शक्ति का प्रतीक है। कथा के अनुसार मां करवा के पति का पैर मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। तब उन्होंने कच्चे धागे से मगर को आन देकर बांध दिया और यमराज के पास पहुंच गईं। वे उस समय चित्रगुप्त के खाते देख रहे थे। करवा ने सात सींक लेकर उन्हें झाड़ना शुरू किया जिससे खाते आकाश में उड़ने लगे। करवा ने यमराज से पति की रक्षा मांगी, तब उन्होंने मगर को मारकर करवा के पति के प्राणों की रक्षा कर उसे दीर्घायु प्रदान की।


कलश और थाली

करवाचौथ की पूजा में मिटटी या तांबे के कलश से चन्द्रमा को अर्ध्य दिया जाता है। पुराणों में कलश को सुख-समृद्धि,ऐश्वर्य और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। मान्यता है कि कलश में सभी ग्रह,नक्षत्रों एवं तीर्थों का निवास होता है। इनके आलावा ब्रह्मा,विष्णु,रूद्र,सभी नदियों,सागरों,सरोवरों एवं तैतीस कोटि देवी-देवता कलश में विराजते हैं। इसके अतिरिक्त पूजा की थाली में रोली, चावल, फल, फूल, दीपक, बताशा, सुहाग का सामान और जल से भरा कलश रखा जाता है। करवा के ऊपर मिटटी की सराही में जौ रखे जाते हैं।जौ समृद्धि,शांति,उन्नति और खुशहाली का प्रतीक होते हैं। इन सभी सामग्रियों से करवा माता की पूजा की जाती है और आशीर्वाद लेकर अपने परिवार के मंगल कामना की प्रार्थना कर पूजा सपन्न की जाती है।


करवा कला




 करवा चौथ से जुड़ी हुई परंपराओं में एक अनूठी परंपरा है करवा कला। करवा कला यानी संपूर्ण करवा की कहानी कहते भित्ति चित्र। यह एक अनूठी लोक कला है जो सदियों से परंपरा के रूप में चली आ रही है।


करवा चौथ पर करवा के चार प्रयोग मिलते हैं पहला संपूर्ण करवा अनुष्ठान दूसरा मिट्टी का टोंटीदार करवा, जिसका पूजन में प्रमुख स्थान है। इसी से चंद्रमा को अर्घ्य दिया जाता है। तीसरी वह भेंट जो वह करवा के अवसर पर भाई बहन के लिए लाता है। और चौथे करवा चौथ से जुड़े चित्र।


एक आकर्षक और अनूठी लोककला का पर्व 

इन चित्रों की निर्माण कला को करवा धरना एवं चित्रों को वर कहते हैं। करवा धरने की कला में सबसे अधिक पारंगत लखनऊ, बाराबंकी, सीतापुर, लखीमपुर, उन्नाव, कानपुर और इटावा तक फैले क्षेत्र की नारियाँ होती हैं, वे करवा पूजन के निमित्त इन भित्ति चित्रों का निर्माण करती हैं।


वैसे हर सुहागिन जो करवा चौथा का व्रत रखती है, उसे पारंपरिक रूप से करवा धरने में महारत हासिल होती है। चूँकि यह प्रायः दीवार पर धरा जाता है, अतः यह कार्य स्वयं ही करना पड़ता है।


स्वयं करवा धरने का एक मनोवैज्ञानिक लाभ भी है। निर्जल व्रत रखने वाली नारी सुबह से शाम तक इस प्रक्रिया में व्यस्त रहती है और उसका दिन कब बीत गया इसका पता ही नहीं चलता और बिना किसी परेशानी के दिन व्यतीत हो जाता है।


करवा रेखांकन चित्रण की कला है। यह एक ओर सुहाग की अटलता के अनुष्ठान से जुड़ी है तो दूसरी ओर भित्ति चित्रों की कला पारंपरिक लोक कला से।


दीवारों के अलावा कहीं-कहीं सुविधानुसार इसे जमीन पर भी धर लिया जाता है। जमीन का करवा सादा होता है। वह चावल के आटे और हल्दी के घोल से अँगुली के सहारे जमीन पर बनाया जाता है।दीवारों में बनने वाले करवे अलग-अलग जगहों पर अपनी परंपराओं के अनुरूप धरे जाते हैं। कुछ क्षेत्रों पर यह रंगीन बनते और कुछ क्षेत्रों में गेरू व चावल के आटे से।


दोनों ही परिस्थितियों में सर्वप्रथम दीवार पर एक आयताकार फलक का निर्माण करना होता है, इसे कैनवास कह सकते हैं। रंगीन करवे के लिए दीवार पर चावल के आटे का घोल पोत दिया जाता है। सूखने पर उसे झाड़ दिया जाता है।


सूखने पर इस फलक पर बनने वाले प्रतीकों का पेंसिल या काले रंग से खाका बनाया जाता है। इसके पश्चात्‌ इनमें रंग भरे जाते हैं। रंग मुख्यतः हरा, लाल, गुलाबी, नीला, पीला होता है। करवा चित्रण में किनारा जरूर बनाया जाता है। बॉर्डर बेलदार या लहरदार या फूलदार या त्रिभुज, आयताकार, वर्ग व वृत्त जैसी ज्यामितीय आकृतियों के मिश्रण से बनाया जाता है।


गेरू और चावल से बनने वाले करवों में फलक गेरू का होता है, उस पर पिसे हुए चावल के घोल से संपूर्ण चित्रकारी की जाती है। यह संपूर्ण पारंपरिक पुट लिए हुए होती है।



करवा में चित्रित प्रतीकों को सामान्यः दो श्रेणियों में रखा जाता है। एक अलौकिक और दूसरे इह लौकिक (भौतिक) जगत के प्रतीक। करवा में गौरी चित्रण प्रधान है। वही केंद्र है करवा रखने का। गौरी चिरसुहागिन हैं। उसी से सुहाग लेकर चिरसुहाग की कामना की जाती है।


अलौकिक आकृतियों में सूर्य व चंद्रमा भी प्रमुखता से बनाए जाते हैं। इसके अलावा कृष्ण, शंकर व गणेश को भी परंपरा अनुरूप बनाया जाता है। गौरी के लिए टोंटीदार करवा, पंखा, सीढ़ी, बैठकी मचिया, चटाई, खाट और चप्पल


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