बुधवार, 25 मई 2022

वट सावित्री व्रत





ज्येष्ठ मास में पड़ने वाले व्रतों में वट अमावस्या को बेहद उत्तम व प्रभावी व्रतों में से एक माना गया है। इस व्रत को उत्तर भारत के कई इलाकों जैसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में भी मनाया जाता है। वहीं महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिणी भारतीय राज्यों में इसके 15 दिन बाद यानी ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को वट सावित्री व्रत रखा जाता है। इस व्रत को करके सौभाग्यवती महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। इस दिन महिलाएं व्रत रखकर वट वृक्ष के पास जाकर विधिवत पूजा करती हैं। इसके साथ ही वट वृक्ष की परिक्रमा करती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसा करने से पति के जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं और सुख-समृद्धि के साथ लंबी आयु की प्राप्ति होती है।


वट सावित्री व्रत 30 मई 2022, दिन सोमवार को रखा जाएगा। अमावस्या तिथि 29 मई को दोपहर 02 बजकर 55 मिनट से प्रारंभ होगी, जो कि 30 मई को शाम 05 बजे तक रहेगी।

शास्त्रों के अनुसार, वट वृक्ष के नीचे बैठकर ही सावित्री ने अपने पति सत्यवान को दोबारा जीवित कर लिया था। 

दूसरी कथा के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि को भगवान शिव के वरदान से वट वृक्ष के पत्ते में पैर का अंगूठा चूसते हुए बाल मुकुंद के दर्शन हुए थे, तभी से वट वृक्ष की पूजा की जाती है। 

वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव का वास माना गया है. यह पेड़ लंबे समय तक अक्षय रहता है, इसलिए इसे 'अक्षयवट' कहते है. वट वृक्ष की पूजा से घर में सुख-शांति, धनलक्ष्मी का भी वास होता है।


वट सावित्री व्रत पूजन सामग्री-


वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री में सावित्री-सत्यवान की मूर्तियां, धूप, दीप, घी, बांस का पंखा, लाल कलावा, सुहाग का समान, कच्चा सूत, चना (भिगोया हुआ), बरगद का फल, जल से भरा कलश, खरबूजा फल, चावल के आटे का पीठ, व्रत कथा की पुस्तक आदि शामिल करना चाहिए।


वट सावित्री व्रत पूजा विधि-


-इस दिन प्रातःकाल घर की सफाई कर नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान करें।

-इसके बाद नए वस्त्र पहनकर सोलह श्रृंगार करें.

- इसके बाद पवित्र जल का पूरे घर में छिड़काव करें।

-बांस की टोकरी में सप्त धान्य भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करें।

- ब्रह्मा के वाम पार्श्व में सावित्री की मूर्ति स्थापित करें।

- इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करें। इन टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे सफाई करने के बाद रखें और स्थान ग्रहण करें।

- इसके बाद ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करें।

- अब सावित्री और सत्यवान की पूजा करते हुए बट की जड़ में पानी दें।

-पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें।

-लाल कपड़ा अर्पित करें और फल समर्पित करें.

-बांस के पंखे से सावित्री-सत्यवान को हवा करें.

-बरगद के वृक्ष में चावल के आटे का पीठा या छाप लगाएं और उसमें सिंदूर का टीका लगाएं।

-जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन, 5 या 7 बार परिक्रमा करें।

-बट के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें.

-बरगद के फल के साथ 11 भीगे हुए चने पानी के साथ घूंटें और पति की दीर्घायु का वरदान मांगें।

-भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर अपनी सास के पैर छूकर उनका आशीष प्राप्त करें।

-यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं।

-पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें.

-इसके बाद घर आकर उसी पंखें से अपने पति को हवा करें और उनका आशीर्वाद लें.


पूजन के बाद इस मंत्र का जप

पूरे विधि विधान से पूजन करने के बाद सुहागिन माता, बहनें अपने जीवन साथी अपने पति की लंबी उम्र की कामना से सबसे पहले 108 बार महामृत्युजंय मंत्र का जप करें। 

इसके बाद 108 बार ही इस यम मंत्र का जप करें। यम मंत्र ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यम: प्रचोदयात्।


इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करना न भूलें। यह कथा पूजा करते समय दूसरों को भी सुनाएं।





वट सावित्री व्रत की पौराणिक कथा

मद्र देश के राजा अश्वपति को पत्नी सहित संतान के लिए सावित्री देवी का विधिपूर्वक व्रत तथा पूजन करने के बाद पुत्री सावित्री की प्राप्त हुई। सावित्री के युवा होने पर अश्वपति ने मंत्री के साथ उन्हें वर चुनने के लिए भेजा। जब वह सत्यवान को वर रूप में चुनने के बाद आईं तो उसी समय देवर्षि नारद ने सभी को बताया कि महाराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की शादी के 12 वर्ष पश्चात मृत्यु हो जाएगी। इसे सुनकर राजा ने पुत्री सावित्री से किसी दूसरे वर को चुनने के लिए कहा मगर सावित्री नहीं मानी। नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय पता करने के बाद वो पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगीं।


नारदजी के बताए समय के कुछ दिनों पहले से ही सावित्री ने व्रत रखना शुरू कर दिया। धीरे -धीरे जब समय बीत गया तब एक दिन सत्यवान की मृत्यु का दिन आ गया और वो बेहोश होकर गिर गए। उस समय जब यमराज सत्यवान को लेने आये तब सावित्री भी उनके पीछे चलने लगीं। कई बार मना करने पर भी सावित्री नहीं मानीं तो यमराज ने उन्हें तीन वरदान मांगने को कहा। तो उन्होंने सबसे पहले अपने नेत्रहीन सास-ससुर के आंखों की ज्योति और दीर्घायु की कामना की। फिर भी पीछे आता देख दूसरे वर में उन्हें अपने ससुर का छूटा राज्यपाठ वापस मिल गया। अंत में सौ पुत्रों का वरदान मांगकर सावित्री ने अपने पति सत्यवान के प्राण वापिस पाए। अपनी इसी सूजबूझ से सावित्री ने ना केवल सत्यवान की जान बचाई बल्कि अपने परिवार का भी कल्याण किया।


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सोमवार, 16 मई 2022

बुद्ध पूर्णिमा

 


बुद्ध पूर्णिमा

वैशाख मास की पूर्णिमा इस साल 16 मई दिन सोमवार को पड़ रही है. इसी दिन बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध का जन्म नेपाल के लुंबिनी नामक स्थान पर हुआ था, इसलिए वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति (बुद्धत्व या संबोधि) और महापरिनिर्वाण ये तीनों वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति भी हुई थी।


बुद्ध पूर्णिमा को बौद्ध धर्म मानने वाले लोग विश्व में जहां जहां भी हैं, वहां प्रकाश उत्सव मनाते हैं. दीप प्रज्वलित करते हैं और बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान बुद्ध का जन्मदिन मनाते हैं. यह त्यौहार भारत, चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान तथा विश्व के कई देशों में मनाया जाता है। 

भगवान बुद्ध के आदर्शों पर चलने वाले, बौद्ध धर्म को मानने वाले वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के सत्य और अहिंसा के व्रत का पालन करते हुए, उनकी शिक्षाओं का सम्मान करते हुए उनका जन्म उत्सव बड़े हर्ष और उल्लास से मनाते हैं.

श्रीलंका व अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में इस दिन को 'वेसाक' उत्सव के रूप में मनाते हैं जो 'वैशाख' शब्द का अपभ्रंश है। 


इस दिन बौद्ध अनुयायी घरों में दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाते हैं। विश्व भर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं। इस दिन बौद्ध धर्म ग्रंथों का पाठ किया जाता है। विहारों व घरों में बुद्ध की मूर्ति पर फल-फूल चढ़ाते हैं और दीपक जलाकर पूजा करते हैं। बोधिवृक्ष की भी पूजा की जाती है। उसकी शाखाओं को हार व रंगीन पताकाओं से सजाते हैं। वृक्ष के आसपास दीपक जलाकर इसकी जड़ों में दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है।। इस पूर्णिमा के दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है। पिंजरों से पक्षियॊं को मुक्त करते हैं व गरीबों को भोजन व वस्त्र दान किए जाते हैं। दिल्ली स्थित बुद्ध संग्रहालय में इस दिन बुद्ध की अस्थियों को बाहर प्रदर्शित किया जाता है, जिससे कि बौद्ध धर्मावलंबी वहाँ आकर प्रार्थना कर सकें।


बुद्ध पूर्णिमा का धार्मिक महत्व


भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व नेपाल के लुंबिनी नामक का स्थान पर हुआ था. सांसारिक जीवन से विरक्त होकर उन्होंने गया में बोधि वृक्ष के नीचे 49 दिन तक लगातार तपस्या की थी. 49वें दिन ज्ञान प्राप्त होने के कारण बोधिसत्व कहलाए.


ज्ञान प्राप्त होने के बाद उन्होंने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ के मृगदाव में दिया था. इनके प्रथम 5 शिष्य कौंडच, वस्प, भददोदि, महानाग और अरसजि थे. इसे धर्म चक्र प्रवर्तन के नाम से भी जाना जाता है.


भगवान बुद्ध ने लोगों को सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी, इसी कारण भगवान बुद्ध का जन्मोत्सव केवल भारत में नहीं अपितु पूरे संसार में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है.


वैशाख पूर्णिमा, भगवान बुद्ध के जीवन की तीन अहम बातें- बुद्ध का जन्म, बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति एवं बुद्ध का निर्वाण के कारण भी विशेष तिथि मानी जाती है। गौतम बुद्ध ने चार सूत्र दिए उन्हें 'चार आर्य सत्य 'के नाम से जाना जाता है।


भगवान बुद्ध के चार आर्य सत्य 


वैशाख पूर्णिमा भगवान बुद्ध के जीवन की तीन अहम बातें-बुद्ध का जन्म,बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति एवं बुद्ध का निर्वाण के कारण भी विशेष तिथि मानी जाती है। गौतम बुद्ध ने चार सूत्र दिए उन्हें 'चार आर्य सत्य 'के नाम से जाना जाता है। 

पहला दुःख है 

दूसरा दुःख का कारण 

तीसरा दुःख का निदान और 

चौथा मार्ग वह है जिससे दुःख का निवारण होता है।


भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग


भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग वह माध्यम है जो दुःख के निदान का मार्ग बताता है। उनका यह अष्टांगिक मार्ग ज्ञान,संकल्प,वचन,कर्म,आजीव,व्यायाम,स्मृति और समाधि के सन्दर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है।  गौतम बुद्ध ने  मनुष्य के बहुत से दुखों का कारण उसके स्वयं का अज्ञान और मिथ्या दृष्टि बताया है। 

बुद्ध पूर्णिमा के दिन बोधगया में दुनियाभर से बौद्ध धर्म मानने वाले यहाँ आते हैं। बोधि वृक्ष की पूजा की जाती है। मान्यता है की इसी वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस दिन बौद्ध मतावलंबी बौद्ध विहारों और मठों में इकट्ठा होकर एक साथ उपासना करते हैं। दीप प्रज्जवलित कर बुद्ध की शिक्षाओं का अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं। महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान के प्रकाश से पूरी दुनिया में एक नई रोशनी पैदा की और पूरी दुनिया को सत्य एवं सच्ची मानवता का पाठ पढ़ाया।

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रविवार, 1 मई 2022

अक्षय तृतीया

 

अक्षय तृतीया पर्व


अक्षय तृतीया , जिसे अक्ती या आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है , एक वार्षिक हिंदू और जैन वसंत त्योहार है। यह वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पड़ता है । यह क्षेत्रीय रूप से भारत और नेपाल में हिंदुओं, जैनियों और झारखंड आदिवासियों द्वारा एक शुभ दिन के रूप में मनाया जाता है , क्योंकि यह "अनंत समृद्धि के तीसरे दिन" का प्रतीक है।


हिन्दू महिने के वैशाख मास का सबसे महत्वपूर्ण पर्व अक्षय तृतीया का ही माना जाता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया कहा जाता है।


मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु के अवतार नर-नारायण ने अवतार लिया था। भगवान विष्णु के ही अन्य अवतार भगवान परशुराम की जयंती भी इसी दिन मनाई जाती है।


इस कारण यह बहुत ही सौभाग्यशाली दिन माना जाता है। इस दिन किसी भी शुभ कार्य को बिना मुहूर्त देखें किया जा सकता है।


अक्षय तृतीया पर भगवान विष्णु की पूजा विधि



आज के दिन प्रात: स्नान आदि के बाद साफ वस्त्र धारण करके पूजा स्थान की सफाई कर लें. उसके बाद श्री लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद या पीले गुलाब या फिर सफेद कमल के फूल से करें. इस दिन दो कलश लें. 

एक कलश को जल से भर दें और उसमें पीले फूल, सफेद जौ, चंदन और पंचामृत डालें. उसे मिट्टी के ढक्कर से ढक दें और उस पर फल रखें.

इसके बाद दूसरे कलश में जल भरें और उसके अंदर काले तिल, चंदन और सफेद फूल डालें. पहला कलश भगवान विष्णु के लिए और दूसरा कलश पितरों के लिए होता है. 

दोनों कलश की विधिपूर्वक पूजा करें. उसके बाद दोनों कलश को दान कर दें. ऐसा करने से भगवान विष्णु और पितर दोनों ही प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा प्राप्त होती है. दोनों के आशीर्वाद से परिवार में सुख एवं समृद्धि आती है.


हिन्दू धर्म में महत्व

अक्षय तृतीया के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर समुद्र या गंगा स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की शान्त चित्त होकर विधि विधान से पूजा करने का प्रावधान है। नैवेद्य में जौ या गेहूँ का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात फल, फूल, बरतन, तथा वस्त्र आदि दान करके ब्राह्मणों को दक्षिणा दी जाती है। ब्राह्मण को भोजन करवाना कल्याणकारी समझा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सत्तू अवश्य खाना चाहिए तथा नए वस्त्र और आभूषण पहनने चाहिए। गौ, भूमि, स्वर्ण पात्र इत्यादि का दान भी इस दिन किया जाता है। यह तिथि वसन्त ऋतु के अन्त और ग्रीष्म ऋतु का प्रारम्भ का दिन भी है इसलिए अक्षय तृतीया के दिन जल से भरे घडे, कुल्हड, सकोरे, पंखे, खडाऊँ, छाता, चावल, नमक, घी, खरबूजा, ककड़ी, चीनी, साग, इमली, सत्तू आदि गरमी में लाभकारी वस्तुओं का दान पुण्यकारी माना गया है। इस दान के पीछे यह लोक विश्वास है कि इस दिन जिन-जिन वस्तुओं का दान किया जाएगा, वे समस्त वस्तुएँ स्वर्ग या अगले जन्म में प्राप्त होगी। इस दिन लक्ष्मी नारायण की पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये।


“सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।

दानकाले च सर्वत्र मन्त्र मेत मुदीरयेत्॥„


अर्थात सभी महीनों की तृतीया में सफेद पुष्प से किया गया पूजन प्रशंसनीय माना गया है।


पुराणों में लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परम्परा भी है।


अक्षय तृतीया पूजा मंत्र


तुलसी पत्र चढ़ाने का मंत्र: “शुक्लाम्बर धरम देवम शशिवर्णम चतुर्भुजम, प्रसन्नवदनम ध्यायेत सर्व विघ्नोपशांतये।।”


पुष्प अर्पित करने का मंत्र: “माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो। मया ह्रितानि पुष्पाणि पूजार्थम प्रतिगृह्यताम।।”


पंचामृत स्नान मंत्र: “पंचामृतम मयानीतम पयो दधि घृतम मधु शर्करा च समायुक्तम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम।।”


विभिन्न प्रान्तों में अक्षय तृतीया

बुन्देलखण्ड में अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक बडी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कुँवारी कन्याएँ अपने भाई, पिता तथा गाँव-घर और कुटुम्ब के लोगों को शगुन बाँटती हैं और गीत गाती हैं।


अक्षय तृतीया को राजस्थान में वर्षा के लिए शगुन निकाला जाता है, वर्षा की कामना की जाती है, लड़कियाँ झुण्ड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती हैं और लड़के पतंग उड़ाते हैं। यहाँ इस दिन सात तरह के अन्नों से पूजा की जाती है। 


मालवा में नए घड़े के ऊपर खरबूजा और आम के पल्लव रख कर पूजा होती है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन कृषि कार्य का आरम्भ किसानों को समृद्धि देता है।


ओडिशा में, अक्षय तृतीया आगामी खरीफ मौसम के लिए चावल धान की बुवाई की शुरुआत के दौरान मनाई जाती है । दिन की शुरुआत अच्छी फसल के आशीर्वाद के लिए किसानों द्वारा धरती मां, बैल, अन्य पारंपरिक कृषि उपकरण और बीजों की पूजा के साथ होती है । राज्य की सबसे महत्वपूर्ण खरीफ फसल के लिए प्रतीकात्मक शुरुआत के रूप में किसान खेतों की जुताई के बाद धान के बीज बोते हैं। इस अनुष्ठान को अखिल मुठी अनुकुला (अखी-अक्षय तृतीया; मुठी- धान की मुट्ठी; अनुकुल- प्रारंभ या उद्घाटन) कहा जाता है और पूरे राज्य में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। हाल के वर्षों में, समारोह के कारण इस आयोजन को बहुत प्रचार मिला है. जगन्नाथ मंदिर की रथ यात्रा उत्सव के लिए रथों का निर्माण भी इसी दिन पुरी में शुरू होता है।


इस दिन बीकानेर (राजस्थान) में स्थानीय पतंग उड़ाते हैं क्योंकि यह शहर की स्थापना का अगला दिन है। ऐसा माना जाता है कि राव बीकाजी द्वारा वैशाख सुहकला द्वितीया को नींव के अगले दिन वे चंदा (गोल गोलाकार पतंग) उड़ाते हैं। इसलिए इसे शहर के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।


तेलुगु भाषी राज्यों तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में, त्योहार समृद्धि से जुड़ा है, महिलाएं सोना और आभूषण खरीदती हैं । सिंहाचलम मंदिर में इस दिन विशेष उत्सव होते हैं। मंदिर के मुख्य देवता शेष वर्ष के लिए चंदन के लेप में ढके रहते हैं, और केवल इस दिन देवता पर चंदन की परतें लगाई जाती हैं ताकि अंतर्निहित मूर्ति को दिखाया जा सके। वास्तविक रूप या निज रूप दर्शनम का प्रदर्शन इस दिन होता है। 


जैन धर्मावलम्बियों का महान धार्मिक पर्व है। इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था।


अक्षय तृतीया के दिन भूल कर भी न करें

भविष्य पुराण में बताया गया है कि अक्षय तृतीया पर भूलकर भी उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिए.


मान्यताओं के अनुसार अक्षय तृतीया के दिन तामसिक भोजन बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे मां लक्ष्मी नाराज हो जाती हैं और घर की खुशियां खत्म हो सकती हैं। इस दिन मांस, मदिरा समेत लहसुन और प्याज का भी सेवन नहीं करना चाहिए।


प्रचलित कथाएँ एवं मान्यताएं

अक्षय तृतीया की अनेक व्रत कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक धर्मदास नामक वैश्य था। उसकी सदाचार, देव और ब्राह्मणों के प्रति काफी श्रद्धा थी। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व के आने पर गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक देवी-देवताओं की पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ ब्राह्मणों को दान में दी। अनेक रोगों से ग्रस्त तथा वृद्ध होने के बावजूद भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। यही वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती राज्य का राजा बना। कहते हैं कि अक्षय तृतीया के दिन किए गए दान व पूजन के कारण वह बहुत धनी प्रतापी बना। वह इतना धनी और प्रतापी राजा था कि त्रिदेव तक उसके दरबार में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में शामिल होते थे। अपनी श्रद्धा और भक्ति का उसे कभी घमण्ड नहीं हुआ और महान वैभवशाली होने के बावजूद भी वह धर्म मार्ग से विचलित नहीं हुआ। माना जाता है कि यही राजा आगे चलकर राजा चंद्रगुप्त के रूप में पैदा हुआ।


स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में उल्लेख है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रेणुका के गर्भ से भगवान विष्णु ने परशुराम रूप में जन्म लिया। कोंकण और चिप्लून के परशुराम मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयन्ती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत में परशुराम जयन्ती को विशेष महत्व दिया जाता है। परशुराम जयन्ती होने के कारण इस तिथि में भगवान परशुराम के आविर्भाव की कथा भी सुनी जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करके उन्हें अर्घ्य देने का बड़ा माहात्म्य माना गया है। 

सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ इस दिन गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और भीगे हुए चने बाँटती हैं, गौरी-पार्वती की पूजा करके धातु या मिट्टी के कलश में जल, फल, फूल, तिल, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। 

मान्यता है कि इसी दिन जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम का जन्म हुआ था। एक कथा के अनुसार परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता के पूजन के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने के बाद भी विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। उल्लेख है कि सीता स्वयंवर के समय परशुराम जी अपना धनुष बाण श्री राम को समर्पित कर संन्यासी का जीवन बिताने अन्यत्र चले गए। अपने साथ एक फरसा रखते थे तभी उनका नाम परशुराम पड़ा।


इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था।


ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। मदनरत्न के अनुसार:


अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥

उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥


भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है।भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था। इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृन्दावन स्थित श्री बाँके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं।


ऋषि दुर्वासा सहित कई संत मेहमानों की यात्रा के दौरान भगवान कृष्ण द्वारा द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्रस्तुति है । वन में अपने वनवास के दौरान, पांडव राजकुमार भोजन की कमी के कारण भूखे थे, और उनकी पत्नी द्रौपदी को इससे पीड़ा हुई क्योंकि वह अपने मेहमानों के लिए प्रथागत आतिथ्य का विस्तार नहीं कर सकी। युधिष्ठिर , जो सबसे बड़े थे, ने भगवान सूर्य से प्रार्थना की जिसने उन्हें यह कटोरा दिया, जो तब तक भरा रहेगा जब तक द्रौपदी अपने सभी मेहमानों की सेवा नहीं कर लेती। ऋषि दुर्वासा की यात्रा के दौरान, भगवान कृष्ण ने इस कटोरे को द्रौपदी के लिए अजेय बना दिया ताकि अक्षय पात्र नामक जादुई कटोरा हमेशा उनकी पसंद के भोजन से भरा रहे, यहां तक ​​कि यदि आवश्यक हो तो पूरे ब्रह्मांड को तृप्त करने के लिए। 


एक किंवदंती के अनुसार, वेद व्यास ने अक्षय तृतीया पर गणेश को हिंदू महाकाव्य महाभारत का पाठ करना शुरू किया। 

एक अन्य किंवदंती में कहा गया है कि गंगा नदी इसी दिन पृथ्वी पर अवतरित हुई थी। बहुत महत्वपूर्ण रूप से, यमुनोत्री मंदिर और गंगोत्री मंदिर को अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर छोटा चार धाम तीर्थयात्रा के दौरान खोला जाता है, जो हिमालयी क्षेत्रों में भारी बर्फबारी से लदी सर्दियों के दौरान बंद हो जाता है। अक्षय तृतीया के अभिजीत मुहूर्त पर मंदिर खोले जाते हैं ।


माना जाता है कि इस दिन हुई एक और महत्वपूर्ण घटना सुदामा की द्वारका में अपने बचपन के दोस्त भगवान कृष्ण की यात्रा थी , जब उन्हें वरदान के रूप में असीमित धन प्राप्त हुआ था।


साथ ही, यह भी माना जाता है कि इस शुभ दिन पर कुबेर को धन के देवता के रूप में स्थान प्राप्त हुआ था। 


 2022 में अक्षय तृतीया के दिन भारत के विभिन्न स्थानों पर  पूजा मुहूर्त 


दिनांक 03  May


06:06 AM to 12:32 PM - Pune

05:39 AM to 12:18 PM - New Delhi

05:48 AM to 12:06 PM - Chennai

05:47 AM to 12:24 PM - Jaipur

05:49 AM to 12:13 PM - Hyderabad

05:40 AM to 12:19 PM - Gurgaon

05:38 AM to 12:20 PM - Chandigarh

05:18 AM to 11:34 AM - Kolkata

06:10 AM to 12:35 PM - Mumbai

05:58 AM to 12:17 PM - Bengaluru

06:06 AM to 12:37 PM - Ahmedabad

05:38 AM to 12:18 PM - Noida


सोने की खरीद मुहूर्त 

अक्षय तृतीया सोने की खरीद मंगलवार 3 मई 2022 को



 अक्षय तृतीया सोने की खरीद का समय - 05:58 पूर्वाह्न से 05:58 पूर्वाह्न, 04 मई


 अवधि - 24 घंटे 00 मिनट


चौघड़िया मुहूर्त

प्रात:काल के लिए मुहूर्त (चर, लाभ, अमृत)- सुबह 08 बजकर 59 मिनट से दोपहर 01 बजकर 58 मिनट तक

दोपहर के लिए मुहूर्त (शुभ)- दोपहर 03 बजकर 38 मिनट से शाम 05 बजकर 18 मिनट तक

शाम के लिए मुहूर्त (लाभ)- रात 08 बजकर 18 मिनट से रात 09 बजकर 38 मिनट तक

रात का मुहूर्त (शुभ, अमृत, चर)- रात 10 बजकर 58 मिनट से देर रात 02 बजकर 58 मिनट तक


ध्यान रखें कि ये नई दिल्ली, भारत के लिए समय हैं,



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