पितृ पक्ष श्राद्ध,पितृ दोष"
पितृ पक्ष
जीवात्मा को पृथ्वी पर लाने के निमित्त जो ऋण जीवात्मा पर चढ़ता है उसे ही पितृ ऋण कहा जाता है। इसीलिए बुजुर्गों, माता-पिता या परिजनों का यह ऋण चुकाने के लिए श्राद्ध कर्म का विधान है।
श्राद्ध
मृतक के लिए श्रद्धा से किए गए तर्पण और पिंडदान को ही श्राद्ध कहा जाता है और ग्रंथों में तीन पीढि़यों तक श्राद्ध करने का विधान बताया गया है.
मान्यताओं के अनुसार यमराज हर साल श्राद्ध पक्ष में सभी जीवों को मुक्त कर देते हैं. ताकि वो अपने परिवार वालों के पास जाकर श्राद्ध कर्म को ग्रहण कर सकें.
बताया जाता है कि श्राद्ध का सबसे अच्छा वक्त तब होता है जब सूर्य की छाया पैरों पर पड़ने लगे यानी दोपहर के बाद ही श्राद्ध कर्म करना चाहिए. क्योंकि सुबह-सुबह या 12 बजे से पहले किया गया श्राद्ध पितरों तक नहीं पहुंच पाता है.
भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं।इन दिनों सूर्य कन्या राशी में रहते हैं। इस लिये इस समय को कनागत कहते हैं। इस वक्त सूर्य दक्षिणायन होता है। शास्त्रों के अनुसार, सूर्य इस दौरान पितरों की आत्माओं को मुक्ति का मार्ग देता है।
गरूड़ पुराण के अनुसार पितृ पक्ष में समस्त आत्माएं अपने परिजनों से भोजन और जल प्राप्त करने के लिए पृथ्वी पर आती हैं। इसलिए उनकी संतुष्टि के लिए मनुष्यों को श्राद्ध कर्म का विधान अपनाना चाहिए।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों को संतुष्ट करना चाहिए।
वायु पुराण में लिखा है कि मेरे पितृ जो प्रेतरुप हैं, तिलयुक्त जौ के पिण्डों से वह तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चाहे वह चर हो या अचर हो, मेरे द्वारा दिए जल से तृप्त हों।
श्राद्ध के भेद
‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्’ पितरों की तृप्ति के लिए जो सनातन विधि से जो कर्म किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं।
शास्त्रीय ग्रंथों में कुल 12 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं
नित्य श्राद्ध
नैमित्तिक श्राद्ध
काम्य श्राद्ध
वृद्धि श्राद्ध
सपिण्डन श्राद्ध
पार्वण श्राद्ध
गोष्ठण श्राद्ध
शुद्धयर्थ श्राद्ध
कर्मांग श्राद्ध
दैविक श्राद्ध
औपचारिक श्राद्ध
सांवत्सरिक श्राद्ध
इन सभी श्राद्धों में सांवत्सरिक श्राद्ध को श्रेष्ठ कहा गया है।
पितृ पक्ष में पूर्णिमा श्राद्ध, महा भरणी श्राद्ध और सर्वपितृ अमावस्या का विशेष महत्व होता है।
पहला दिन: पूर्णिमा श्राद्ध
दूसरा दिन: प्रतिपदा श्राद्ध
तीसरा दिन: द्वितीय श्राद्ध
चौथा दिन: तृतीया श्राद्ध
पांचवां दिन: चतुर्थी श्राद्ध, महाभरणी श्राद्ध
छठा दिन: पंचमी श्राद्ध
सातवां दिन: षष्ठी श्राद्ध
आठवां दिन: सप्तमी श्राद्ध
नौवा दिन: अष्टमी श्राद्ध
दसवां दिन: नवमी श्राद्ध (मातृनवमी)
ग्यारहवां दिन: दशमी श्राद्ध
बारहवां दिन: एकादशी श्राद्ध
तेरहवां दिन: द्वादशी श्राद्ध, संन्यासी, यति, वैष्णव जनों का श्राद्ध
चौदहवां दिन: त्रयोदशी श्राद्ध
पंद्रहवां दिन: चतुर्दशी श्राद्ध
सोलहवां दिन: अमावस्या श्राद्ध, अज्ञाततिथिपितृ श्राद्ध, सर्वपितृ अमावस्या, पितृविसर्जन महालय समाप्ति
श्राद्ध के मूलतः चार भाग कहे गए हैं। तर्पण, पिंडदान, भोजन और वस्त्रदान या दक्षिणा दान.
पितृपक्ष तर्पण विधि
पितरों को जल देने की विधि को तर्पण कहते हैं। तर्पण कैसे करना चाहिए, तर्पण के समय कौन से मंत्र पढ़ने चाहिए और कितनी बार पितरों से नाम से जल देना चाहिए. आइए अब इसे जानेंः-
हाथों में कुश लेकर दोनों हाथों को जोड़कर पितरों का ध्यान करना चाहिए और उन्हें आमंत्रित करेंः-
‘ओम आगच्छन्तु में पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम’
इस मंत्र का अर्थ है, हे पितरों, पधारिये और जलांजलि ग्रहण कीजिए।
तर्पण पिता को जल देने का मंत्र
अपने गोत्र का नाम लेकर बोलें,
गोत्रे अस्मतपिता (पिता का नाम) शर्मा वसुरूपत् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः
इस मंत्र को बोलकर गंगा जल या अन्य जल में दूध, तिल और जौ मिलकर 3 बार पिता को जलांजलि दें। जल देते समय करें कि वसु रूप में मेरे पिता जल ग्रहण करके तृप्त हों। इसके बाद पितामह को जल जल दें।
तर्पण पितामह को जल देने का मंत्र
अपने गोत्र का नाम लेकर बोलें, गोत्रे अस्मत्पितामह (पितामह का नाम) शर्मा वसुरूपत् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः। इस मंत्र से पितामह को भी 3 बार जल दें।
तर्पण माता को जल देने का मंत्र
जिनकी माता इस संसार के विदा हो चुकी हैं उन्हें माता को भी जल देना चाहिए। माता को जल देने का मंत्र पिता और पितामह से अलग होता है। इन्हें जल देने का नियम भी अलग है। चूंकि माता का ऋण सबसे बड़ा माना गया है इसलिए इन्हें पिता से अधिक बार जल दिया जाता है। माता को जल देने का मंत्रः- (गोत्र का नाम लें) गोत्रे अस्मन्माता (माता का नाम) देवी वसुरूपास्त् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जल वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः। इस मंत्र को पढ़कर जलांजलि पूर्व दिशा में 16 बार, उत्तर दिशा में 7 बार और दक्षिण दिशा में 14 बार दें।
दादी के नाम पर तर्पण
(गोत्र का नाम लें) गोत्रे पितामां (दादी का नाम) देवी वसुरूपास्त् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जल वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः। इस मंत्र से जितनी बार माता को जल दिया है दादी को भी जल दें।
श्राद्ध में श्रद्धा का महत्व सबसे अधिक है इसलिए जल देते समय मन में माता-पिता और पितरों के प्रति श्रद्धा भाव जरूर रखें। श्रद्धा पूर्वक दिया गया अन्न जल ही पितर ग्रहण करते हैं। अगर श्राद्ध भाव ना हो तो पितर उसे ग्रहण नहीं करते हैं।
पितृ पक्ष में पिण्डदान अर्थान अपने दिवंगत पितरों के निमित्त चावल के पिण्ड या जौ गेहूं के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर छोटे-छोटे कुल 12 पिण्ड बनाकर शास्त्रोंक्त विधि से पिंडदान करनें का विधान है। पितृ पक्ष में अपने घर पर भी बिना किसी पंडित के सहयोग के भी पिण्डदान श्राद्धकर्म किया जा सकता है। जानें घर पर पिंडदान करने की सरल शास्त्रोंक्त विधि।
पितृ पक्ष श्राद्ध पूजा विधि
घर पर ही ऐसे करें पिण्डदान
पूजन सामग्री : कुशा,कुशा का आसन, काली तिल, गंगा जल, जनैउ, ताम्बे का बर्तन, जौ, सुपारी, कच्चा दूध |
सबसे पहले केले के दो हरे पत्ते या पत्तल लें एवं एक पर थोड़ा कुशा बिछाकर सारे पिण्ड रख दे, एवं दूसरी पत्तल को एक तरफ रख दें।
इस मंत्र का उच्चारण करते हुए कुशा बिछायें।
मन्त्र
ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।।
त्वय्यचिर्तेऽचिर्तः सोऽस्तु, यस्याहं नाम कीर्तये।।
पिण्ड समर्पण प्रार्थना
पिण्डों को कुशा पर बिछाने के बाद, हाथ जोड़कर पिण्ड समर्पण के भाव सहित नीचे लिखे मन्त्र का उच्चारण करते हुए नमस्कार करें-
ॐ आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता, मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः।।
वंशद्वये ये मम दासभूता, भृत्यास्तथैवाश्रितसेवकाश्च॥
मित्राणि शिष्याः पशवश्च वृक्षाः, दृष्टाश्च स्पृष्टाश्च कृतोपकाराः।।
जन्मान्तरे ये मम संगताश्च, तेषां स्वधा पिण्डमहं ददामि।।
पिण्डदान विधि
अब दूसरी वाली पत्तल पर एक एक मंत्र के साथ पिण्डदान करते चले। बाएं हाथ से पिंड उठाकर दाहिने हाथ में रखें एवं पिण्ड लेकर पितृतीर्थ मुद्रा से दक्षिणा दिशा की ओर मुख करके बैठे जाएं।
1- देवताओं के लिए पहला पिण्ड छोड़े
ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।।
असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।।
2- दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त
ॐ अंगिरसो नः पितरो नवग्वा, अथर्वणो भृगवः सोम्यासः।।
तेषां वय सुमतौ यज्ञियानाम्, अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥
3- तीसरा पिण्ड दिव्य मानवों के निमित्त-
ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासः, अग्निष्वात्ताः पथिभिदेर्वयानैः।। अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तः, अधिब्रवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥
4- चौथा पिण्ड दिव्य पितरों के निमित्त
ॐ ऊजर वहन्तीरमृतं घृतं, पयः कीलालं परिस्रुत्।।
स्वधास्थ तर्पयत् मे पितृन्॥
5- पांचवां पिण्ड यम के निमित्त-
ॐ पितृव्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।
अक्षन्पितरोऽमीमदन्त, पितरोऽतीतृपन्त पितरः, पितरः शुन्धध्वम्॥
6- छठवां पिण्ड मनुष्य-पितरों के निमित्त
ॐ ये चेह पितरों ये च नेह, याँश्च विद्म याँ२ उ च न प्रविद्म।।
त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः, स्वधाभियञ सुकृतं जुषस्व॥
7- सातवां पिण्ड मृतात्मा के निमित्त- (पिता, माता या अन्य संबंधी)
ॐ नमो वः पितरो रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरों जीवाय, नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरों घोराय, नमो वः पितरों मन्यवे, नमो वः पितरः पितरों, नमो वो गृहान्नः पितरों, दत्त सतो वः पितरों देष्मैतद्वः, पितरों वासऽआधत्त।।
8- आठवां पिण्ड पुत्रदार रहितों के निमित्त
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च।।
गुरुश्वसुरबन्धूनां, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः॥
ये मे कुले लुप्त पिण्डाः, पुत्रदारविवर्जिता:।।
तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
9- नौवां पिण्ड अविच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त
ॐ उच्छिन्नकुल वंशानां, येषां दाता कुले नहि।।
धर्मपिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
10- दसवां पिण्ड गर्भपात से मर जाने वालों के निमित्त-
ॐ विरूपा आमगभार्श्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम॥
तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
11- ग्यारहवां पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त-
ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम्।।
भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु, धर्मपिण्डं ददाम्यहम्॥
12- बारहवां पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त
ॐ ये बान्धवाऽबान्धवा वा, ये न्यजन्मनि बान्धवाः।।
तेषां पिण्डों मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
उक्त 12 पिण्डदान करने के बाद दुध, दही एवं शहद सभी पिण्डों पर एक-एक मंत्रों का उच्चारण करते हुए अर्पित करें।
1- सबसे पहले गाय का दुध सभी पिंडों पर अर्पित करें-
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः।। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।।
ॐ दुग्धं।। दुग्धं।। दुग्धं।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्॥
2- दही सभी पिंडों पर अर्पित करें-
ॐ दधिक्राव्णऽअकारिषं, जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।। सुरभि नो मुखाकरत्प्रण, आयुषि तारिषत्।।
ॐ दधि।। दधि।। दधि।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्।।
3- शहद सभी पिंडों पर अर्पित करें-
ॐ मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः।। माध्वीनर्: सन्त्वोषधीः।। ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पाथिव रजः।। मधु द्यौरस्तु नः पिता।। ॐ मधुमान्नो वनस्पति, मधुमां२ऽ अस्तु सूर्य:।। माध्वीगार्वो भवन्तु नः।।
ॐ मधु।। मधु।। मधु।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्।। तृप्यध्वम्।।
पिंडदान का क्रम पूरा होने के बाद सभी पिंडों को गाय को खिला दें या पिर नदी तालाब में मछलियों के लिए छोड़ दें।
इस प्रकार भोजन की आहुति के साथ पितृ श्राद्ध पक्ष विधि पूरी की जाती है .
श्राद्ध के बाद कौओं को जरूर खिलाना चाहिए, क्योंकि कौओं को पितर का रूप माना गया है. कहा जाता है कि पितर कौओं के रूप में श्राद्ध लेने धरती पर आते हैं. श्राद्ध का पहला अंश कौओं को देने का विधान है.
शास्त्रों में गयाजी को श्राद्ध करने का सबसे उत्तम स्थान कहा गया है। इस वारे में तो यहां तक कहा गया है कि जो मनुष्य एक बार अपने पितरों का श्राद्ध कर्म, पिंडदान, गयाजी में आकर करता है उसे फिर कभी श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। श्राद्ध या पिण्डदान में काले तिल, सफेद तिल, चावल, जौ, सफेद फूल, कुशा इत्यादी को काफी महत्व दिया गया है।
जल तथा सभी वनस्पतियों के सार के रूप में कुश को माना जाता है। शास्त्रो के अनुसार बताया गया है कि कुश तथा तिल दोनों ही भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं तथा गरूड पुराण के अनुसार कुश में तीन देवता समाहित हैं:
◦कुश की जड में ब्रह्मा रहते हैं जिसे पितरों का अंश माना जाता है।
◦कुश के मध्य भाग में विष्णु भगवान रहते हैं जिसे मनुष्य का अंश माना जाता है और
◦कुश के सबसे महत्वपूर्ण अग्रभाग में महेश अर्थात शिवजी रहते हैं जिसे देवताओं का अंश माना जाता है।
पितृ पक्ष एक ऐसा अवसर होता जब पितरों (पूर्वजों) तर्पण के द्वारा खुश किया जाता है। पितृ पक्ष 15-16 दिनों तक चलने वाला खास अवसर होता है। पौराणिक ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि मनुष्य को देवता की पूजा से पहले पितरों (पूर्वजों) की पूजा करनी चाहिए। इस बारे में ऐसी मान्यता है कि पितरों की पूजा से देवता भी खुश होते हैं। मान्यता है कि विधिवत पितृ-पूजन करने से पितरों को मृत्युलोक में भटकना नहीं पड़ता है। साथ ही उनकी आत्मा को मुक्ति मिल जाती है। पितरों की आत्मा की शांति के लिए दान (पिंडदान) करने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ऐसे में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि किन चीजों का दान लाभकारी होता है।
आईये जानते हैं उन 10 चीजों के बारे में जिसे पितृ पक्ष में दान करना शुभ माना गया है।
1. गाय: पितृ पक्ष में गाय का दान (गौ-दान) महादान कहा गया है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष के दौरान गाय का दान करना चाहिए।
2. भूमि (जमीन) दान: अगर श्राद्धकर्ता जमीन दान करने योग्य है तो ऐसे में उसे जमीन का छोटा सा टुकड़ा किसी गरीब को दान करना चाहिए। श्राद्ध करने वाले के लिए यदि छोटा सा जमीन का टुकड़ा दान करना भी संभव नहीं है तो ऐसे में उसे मिट्टी का एक छोटा सा टुकड़ा (पिंड) दान करना चाहिए। पिंडदान के लिए श्राद्ध कर्ता को मिट्टी को पिंदनुमा बनाकर थाली में रखना चाहिए। इसके बाद संकल्प लेकर दक्षिणा सहित किसी ब्राह्मण को देना चाहिए।
3. तिल: पितृ पक्ष में तिल का दान अच्छा माना गया है।
4. सोना: पितृ पक्ष में स्वर्ण दान करना शुभ माना गया है। अगर श्राद्ध करने वाला सोना दान करने में सक्षम नहीं है तो उसे सोना के बदले में किसी ब्राह्मण को दक्षिणा देना देना चाहिए।
5. घी: पितृ पक्ष में गाय के घी का दान भी शुभ माना गया है। किसी बर्तन में गाय का शुद्ध घी दान करना चाहिए।
6. वस्त्र: पितृ पक्ष में वस्त्र (कपड़े) दान में दो अंदर गार्मेंट्स और दो मुख्य पोशाक दान में देना चाहिए। ब्राह्मण को वस्त्र दान करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि कपड़े न तो कहीं से फटा हो और न ही इस्तेमाल किया गया हो।
7. अनाज: धान्य (अनाज) के रूप में चावल, गेहूं, और अन्य अनाज का दान संकल्प के साथ करना चाहिए।
8. गुड़: पितृ पक्ष में गुड़ का दान भी अच्छा माना जाता है।
9. चांदी: श्राद्ध करने वाला यदि पितृ पक्ष में चांदी का दान करता है तो उसे पितर उन्हें आशीर्वाद देते हैं.
10. नमक: पितृ पक्ष में नमक का दान करने से पितर प्रसन्न होते हैं.
पितृ दोष
नवम पर जब सूर्य और राहू की युति हो रही हो तो यह माना जाता है कि पितृ दोष योग बन रहा है। शास्त्र के अनुसार सूर्य तथा राहू जिस भी भाव में बैठते है, उस भाव के सभी फल नष्ट हो जाते है। व्यक्ति की कुण्डली में एक ऎसा दोष है जो इन सब दु:खों को एक साथ देने की क्षमता रखता है, इस दोष को पितृ दोष के नाम से जाना जाता है।
अगर किसी को पितृ दोष जैसी समस्या हो तो वे पितृ पक्ष में इस पितरों के दिव्य कृपा स्त्रोत का सुबह एवं शाम को दोनों समय एक सरसों के तेल का दीपक जलाकर श्रद्धा पूर्वक अर्थ सहित पाठ करें। पितृ पक्ष में इस स्त्रोत के पाठ मात्र से पितृ दोष के कारण होने वाली सैकड़ों परेशानियां दूर हो जाती है।
।। अथ पितृस्तोत्र ।।
1- अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
हिन्दी अर्थ– जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न है। उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूं।
2- इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।
हिन्दी अर्थ– जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता है, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूं।
3- मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा।
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि।।
हिन्दी अर्थ– जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक है। उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूं।
4- नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
हिन्दी अर्थ– नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं।
5- देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि:।।
हिन्दी अर्थ– जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं।
6- : कश्पाय सोमाय वरुणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि:।।
हिन्दी अर्थ– प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूं।
7- नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
हिन्दी अर्थ– सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूं।
8- सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
हिन्दी अर्थ– चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूं। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूं।
9- अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत:।।
हिन्दी अर्थ– अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूं, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
10- ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय:।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण:।।
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस:।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज।।
हिन्दी अर्थ– जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूं। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हो।
आपको यह लेख अच्छा लगा हो तो इसे शेयर जरूर करें व इसी तरह के अन्य लेख पढ़ने के लिए जुड़ी रहें आपकी अपनी वेबसाइट Harsh Blogs (www.harsh345.wordpress.com) के साथ।
डिसक्लेमर
'इस लेख में दी गई जानकारी/सामग्री/गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/धार्मिक मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। मेरा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक या उपयोगकर्ता इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता या पाठक की ही होगी।'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें